________________ इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि]] [567 29 वाँ और 30 वा बोल 19. पावसुयपसंगेसु मोहट्ठाणेसु चेव य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [16] पापश्रुत-प्रसंगों में और मोह-स्थानों (महामोहनीयकर्म के कारणों) में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता। 'विवेचन-पापश्रुत-प्रसंग 29 प्रकार के हैं--(१) भौम (भूमिकम्पादि बतानेवाला शास्त्र), (2) उत्पात (रुधिरवृष्टि, दिशानों का लाल होना इत्यादि का शुभाशुभफलसूचक शास्त्र), (3) स्वप्नशास्त्र, (4) अन्तरिक्ष (विज्ञान), (5) अंगशास्त्र (6) स्वर-शास्त्र (7) व्यंजनशास्त्र, (8) लक्षणशास्त्र, ये आठों ही सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से 24 शास्त्र हो जाते हैं। (25) विकथानुयोग, (26) विद्यानुयोग, (27) मन्त्रानुयोग, (28) योगानुयोग (वशीकरणादि योग सूचक) और .(26) अन्यतीथिकानुयोग (अन्यतैर्थिक हिंसाप्रधान प्राचारशास्त्र)। इन 26 प्रकार के पापाश्रवजनक शास्त्रों का प्रयोग उत्सर्गमार्ग में न करना साधु का कर्त्तव्य है।' ___महामोहनीय (मोह) के तीस स्थान--(१) त्रस जीवों को पानी में डुबा कर मारना, (2) उस जीवों को श्वास प्रादि रोक कर मारना, (3) बस जोवों को मकानादि में बंद करके धुंए से घोट कर मारना, (4) त्रस जीवों को मस्तक पर गोला चमड़ा आदि बांध कर मारना, (5) त्रस जीवों को मस्तक पर डंडे आदि के घातक प्रहार से मारना, (6) पथिकों को धोखा देकर लूटना, (7) गुप्त रीति से अनाचार-सेवन करना, (8) अपने द्वारा कृत महादोष का दूसरे पर पारोप (कलंक) लगाना, (9) सभा में यथार्थ (सत्य) को जानबूझ कर छिपाना, मिश्रभाषा (सत्य जैसा झूठ) बोलना / (10) अपने अधिकारी (या राजा) को अधिकार और भोगसामग्री से वंचित करना, (11) बालब्रह्मचारी न होते हुए भी अपने को बालब्रह्मचारी कहना, (12) ब्रह्मचारी न होते हुए भी ब्रह्मचारी होने का ढोंग रचना, (13) आश्रयदाता का धन हड़पना-चुराना, (14) कृत उपकार को न मान कर कृतघ्नता करना, उपकारी के भोगों का विच्छेद करना, (15) पोषण देने वाले गृहपति या संघपति अथवा सेनापति प्रशास्ता की हत्या करना, (16) राष्ट्रनेता, निगमनेता या प्रसिद्ध श्रेष्ठी की हत्या करना, (17) जनता एवं समाज के आधारभूत विशिष्ट परोपकारी पुरुष को हत्या करना, (18) संयम के लिए तत्पर मुमुक्षु और दीक्षित साधु को संयमभ्रष्ट करना, (16) अनन्तज्ञानी की निन्दा तथा सर्वज्ञता के प्रति प्रश्रद्धा करना, (20) प्राचार्य उपाध्याय की सेवा-पूजा न करना, (21) अहिंसादि मोक्षमार्ग की निन्दा करके जनता को विमुख करना, (22) आचार्य और उपाध्याय को निन्दा करना, (26) बहुश्रुत न होते हुए भी स्वयं को बहुश्रुत (पण्डिन) कहलाना (24) तपस्वी न होते हुए भी रवयं को तपस्वो कहना, (25) शक्ति होते हुए भी रोगी, वृद्ध अशक्त आदि की सेवा न करना, (26) ज्ञान-दर्शन-चारित्रविनाशक कामोत्पादक कथाओं का बार-बार प्रयोग करना, (27) "अपने मित्रादि के लिए बार-बार जादू टोने, मन्त्र वशीकरणादि का प्रयोग करना / (28) ऐहिक पारलौकिक भोगों की निन्दा करके छिपे-छिपे उनका सेवन करना, उनमें प्रत्यासक्त रहना, (26) देवों 1. (क) समवायांग, समवाय 29 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 617 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org