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________________ [उत्तराध्ययनसूत्र 27 वाँ और 28 वाँ बोल 18. अणगारगुणेहि च पकप्पम्मि तहेव य / जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [18] (सत्ताईस) अनगारगुणों में और (प्राचार) प्रकल्प (प्राचारांग के 28 अध्ययनों) में जो भिक्षु सदैव उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता। विवेचन-सत्ताईस अनगारगुण--(१-५) पांच महाव्रतों का सम्यक पालन करना, (6-10) पांचों इन्द्रियों का निग्रह, (11-14) क्रोध-मान-माया-लोभ-विवेक (15) भावसत्य (अन्तःकरण शुद्ध रखना), (16) करणसत्य (वस्त्र-पात्रदि का भलीभांति प्रतिलेखन प्रादि करना), (17) योगसत्य, (18) क्षमा, (16) विरागता, (20) मनःसमाधारणता (मन को शुभ प्रवृत्ति), (21) वचनसमाधारणता (वचन को शुभ प्रवृत्ति), (22) कायसमाधारणता, (23) ज्ञानसम्पन्नता, (24) दर्शनसम्पन्नता, (25) चारित्रसम्पन्नता, (26) वेदनाधिसहन और (27) मारणान्तिकाधिसहन / किसी प्राचार्य ने 27 अनगारगुणों में चार कषायों के त्याग के बदले सिर्फ लोभत्याग माना है, तथा शेष के बदले रात्रिभोजन त्याग, छहकाय के जीवों की रक्षा, संयमयोगयुक्तता, माने हैं।' अट्ठाईस आचारप्रकल्प अध्ययन-मूलसूत्र में केवल 'प्रकल्प' शब्द मिलता है। किन्तु उससे 'प्राचारप्रकल्प' शब्द ही लिया जाता है। प्राचार का अर्थ है.--आचारांग (प्रथम अंगसूत्र), और उसका प्रकल्प अर्थात्-अध्ययन-विशेष निशीथ-प्राचार-प्रकल्प / जिसमें मुनिजीवन के प्राचार का वर्णन हो वे याचारांग और निशीथसूत्र हैं। 28 अध्ययन इस प्रकार होते हैं-प्राचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के 9 अध्ययन-(१)शस्त्रपरिज्ञा, (2) लोकविजय, (3) शीतोष्णीय, (4) सम्यक्त्व, (5.) लोकस ) धताऽध्ययन, (7) महापरिज्ञा (लुप्त), (8) विमोक्ष, (8) उपधानश्रत / द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 16 अध्ययन-(१) पिण्डैषणा, (2) शय्या, (3) ईर्या, (4) भाषा, (5) वस्त्रैषणा, (6) पात्रैषणा, (7) अक्ग्रहप्रतिमा (8-14) सप्त सप्ततिका, (सात स्थानादि एक-एक) (15) भावना और (16) विमुक्ति। इसके अतिरिक्त निशीथ [पाचारांग-चूला (-चूड़ा) के रूप में अभिमत] के तीन अध्ययन हैं-(१) उद्घात, (2) अनुद्घात और (3) प्रारोपण / इस प्रकार + 16+3=28 अध्ययन कुल मिला कर होते हैं। इत 28 अध्ययनों में वर्णित साध्वाचार का पालन करना और अनाचार से विरत होना साधु का परम कर्तव्य है / 2 1. (क) समवायांग. समवाय 27 (ख) बयछक्कमिदियाणं च, निग्गहो भाव-करणसच्चं च / खमया विरागया वि य, मयमाईणं गिरोहो य / कायाण छक्कजोगम्मि, जुत्तया वेयणाहियासणया। तह मारणंतियहियासणया एए ऽणगारगुणा // 2, बृहद्वत्ति, पत्र 616 -बृहद्वृत्ति, पत्र 616. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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