________________ इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि] [565 चौवीस प्रकार के देव-१० प्रकार के भवनपति देव, 8 प्रकार के व्यन्तरदेव, 5 प्रकार के ज्योतिष्कदेव, और वैमानिक देव (समस्त वैमानिक देवों को सामान्य रूप से एक ही प्रकार में गिना है)। दूसरी व्याख्या के अनुसार-चौबीस तीर्थकर देवों का ग्रहण किया गया है।' मुमुक्षु को चौबीस जाति के देवों के भोग-जीवन की न तो प्रशंसा करना और न ही निन्दा, किन्तु तटस्थभाव रखना चाहिए। चौबीस तीर्थकरों का ग्रहण करने पर इनके प्रति श्रद्धा-भक्ति रखना, इनकी आज्ञानुसार चलना साधु के लिए आवश्यक है / पच्चीसवाँ और छब्बीसवाँ बोल 17. पणवीस--भावणाहि उद्देसेसु दसाइणं / जे भिक्ख जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [17] पच्चीस भावनाओं, तथा दशा आदि (दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, और बृहत्कल्प) के (छव्वीस) उद्देशों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता। _ विवेचन--पांच महावतों की 25 भावनाएँ--प्रथम महाबत को पांच भावना-(१) ईर्यासमिति, (2) आलोकित पानभोजन, (3) आदान-निक्षेपसमिति, (4) मनोगुप्ति, और (5) वचनगुप्ति / द्वितीय महावत को पांच भावना--(१) अनुविचिन्त्य भाषण, (2) क्रोध-विवेक (त्याग), (3) लोभविवेक, (4) भयविवेक और (5) हास्यविवेक / तृतीय महावत की 5 भावना-(१) अवग्रहानुज्ञापना, (2) अवग्रहसीमापरिज्ञानता, (3) अवग्रहानग्रहणता (अवग्रहस्थित तण', पट आदि के लिए पुनः अव हस्वामी की आज्ञा लेकर ग्रहण करना), (4) गुरुजनों तथा अन्य सार्मिकों से भोजनानुज्ञाप्राप्त करना, और (5) सार्मिकों से अवग्रह-अनुज्ञा प्राप्त करना, / चतुर्थ महावत को 5 भावना(१) स्त्रियों में कथावर्जन (अथवा स्त्रीविषयकच त्याग), (2) स्त्रियों के अंगोपांगों का अवलोकनवर्जन, (3) अतिमात्र एवं प्रणीत पान-भोजनवर्जन, (4) पूर्वभुक्तभोग-स्मृति-वर्जन, और (5) स्त्री प्रादि से संसक्त शयनासन-वर्जन / पंचम महाव्रत की 5 भावना-(१-५) पांचों इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के इन्द्रियगोचर होने पर मनोज्ञ पर रागभाव और अमनोज्ञ पर द्वेषभाव न रखना / 5 महाव्रतों को इन 25 भावनाओं द्वारा रक्षा करना तथा संयमविरोधी भावनाओं से निवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है। दशाश्रुतस्कन्ध आदि सूत्रत्रयो के 26 उद्देशक-दशाश्रुतस्कन्ध के 10 उद्देश, बृहत्कल्प के 6 उद्देश और व्यवहारसूत्र के 10 उद्देश / कुल मिला कर 26 उद्देश होते हैं। इन तीनों सूत्रों में साधुजीवन सम्बन्धी प्राचार, आत्मशुद्धि एवं शुद्ध व्यवहार की चर्चा है। साधु को इन 26 उद्देशों के अनुसार अपना प्राचार, व्यवहार एवं प्रात्मशुद्धि का प्राचरण करना चाहिए।' 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 616 : भवण-पण-जोइ-बेमाणिया य, दस अट्ठ पंच एगविहा / इति चउवीसं देवा, केई पुण बेंति अरिहंता // (ख) समवायांग. समवाय 24.. 2. (क) प्रश्नव्याकरण संवरद्वार, (ख) समवायांग समवाय 25, (ग) याचारांग 2015 3. (क) बृहृवृत्ति, पत्र 616, (ख) दशाश्रुत. वृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org