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________________ 564] [उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन-इक्कीस शबल दोष-(१) हस्तकर्म, (2) मैथुन, (3) रात्रिभोजन, (4) प्राधाकर्म, (5) सागारिक पिण्ड (शय्यातर का पाहार लेना), (6) औद्देशिक (साधु के निमित्त बनाया, खरीदा, या लाया हुअा आहार ग्रहण करना), (7) प्रत्याख्यानभंग, (8) गणपरिवर्तन (छह मास में गण से गणान्तर में जाना), (6) उदकलेप (महीने में तीन बार जंघा प्रमाण जल में प्रवेश करके नदी आदि पार करना) (10) मायास्थान (एक मास में 3 बार मायास्थानों का सेवन करना), (11) राजपिण्ड, (12) जानबूझ कर हिंसा करना, (13) इरादा पूर्वक मृषावाद करना (14) इरादा पूर्वक अदत्तादान करना,(१५) सचित्त पृथ्वीस्पर्श (16) सस्निग्ध तथा सचित्त रज वाली पृथ्वी, शिला, तथा सजीव लकड़ी आदि पर शयनासनादि, (17) सजीव स्थानों पर शयनासनादि, (18) जानबूझ कर कन्द मूलादि का सेवन करना, (16) वर्ष में दस बार उदक लेप, (20) वर्ष में दस बार माया स्थानसेवन, और (21) बार-बार सचित्त जल वाले हाथ, कुड़छी आदि से दिया जाने वाला पाहार ग्रहण करना / उपर्युक्त शबलदोषों का सर्वथा त्याग साधु के लिए अनिवार्य है। जिन कार्यों के करने से चारित्र मलिन हो जाता है, उन्हें शबलदोष कहते हैं / बाईस परोषह-दूसरे अध्ययन में इनके नाम तथा स्वरूप का उल्लेख किया जा चुका है। साधु को इन परोषहों को समभाव से सहन करना चाहिए / तेईसवाँ और चौवीसवाँ बोल 16. तेवीसइ सूयगडे रूवाहिएसु सुरेसु प्र। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले / / [16] सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों में तथा रूपाधिक (सुन्दर रूप वाले) सुरों---अर्थात्-चौबीस प्रकार के देवों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता। विवेचन–सूत्रकृतांगसूत्र के 23 अध्ययन---प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16 अध्ययनों के नाम सोलहवें बोल में बताये गए हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 7 अध्ययन इस प्रकार हैं--(१) पौण्डरीक, (2) क्रियास्थान, (3) आहारपरिज्ञा, (4) प्रत्याख्यानक्रिया, (5) आचारश्रुत, (6) आर्द्र कीय और (7) नालन्दीय / प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16 और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 7, ये सब मिला कर 23 अध्ययन हए। उक्त 23 अध्ययनों के भावानुसार संयमी जीवन में प्रवृत्त होना और असंयम से निवत्त होना साधुवर्ग के लिए आवश्यक है। 1. (क) समवायांग. समवाय 21 (ग) दशाश्रुतस्कन्ध दशा 2 (ग) “शबलं कबुर चारित्रं यैः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात् साधनोऽपि / " --समवायांग समवाय. 21 टीका / 2. (क) उत्तराध्ययन . 2 मुलपाठ, (ख) परीसहिज्जते इति परीसहा अहियासिज्जतित्ति वत्तं भवति / - जिनदास महत्तर 3. (क) सुत्रकलांग. 1 से 23 अध्ययन तक (ख) समबायांग, समवाय. 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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