________________ इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि] विवेचन-अठारह प्रकार का ब्रह्मचर्य-देव सम्बन्धी भोगों का मन-वचन-काया से स्वयंसेवन करना, दूसरों से कराना और करते हुए को भला जानना, ये नौ भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी अब्रह्मचर्य के होते हैं / इसी प्रकार नौ भेद मनुष्य-तिर्यञ्चसम्बन्धी प्रौदारिक भोग-सेवनरूप : अब्रह्मचर्य के समझ लेने चाहिए / कुल मिला कर अठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य से विरत होना और अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य में प्रवृत्त होना साधु के लिए अावश्यक है।' ज्ञाताधर्मकथा के 19 अध्ययन–(१) उत्क्षिप्त (-मेघकुमारजीवन), (2) संघाट, (3) अण्ड, (4) कूर्म, (5) शैलक, (6) तुम्ब, (7) रोहिणी; (8) मल्ली . (9) माकन्दी, (10) चन्द्रमा, (11) दावदव, (12) उदक, (13) मण्डूक, (14) तेतलि, (15) नन्दीफल, (16) अवरकंका, (17) आकीर्णक, (18) सुंसुमादारिका, (16) पुण्डरीक / उक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार संयम-साधना में प्रवत्त होना तथा इनसे विपरीत असंयम से निवृत्त होना साधुवर्ग के लिए आवश्यक है। बीस प्रसमाधिस्थान-(१) द्रुत-द्रुतचारित्व, (2) अप्रमृज्यचारित्व, (3) दुष्प्रमृज्यचारित्व, . (4) अतिरिक्तशय्यासनिकत्व (अमर्यादित शय्या और प्रासन), (5) रास्तिकपराभव (गुरुजनों का अपमान), (6) स्थविरोपघात (स्थविरों की अवहेलना), (7) भूतोपघात, (8) संज्वलन (क्षण-क्षण-~बार-बार क्रोध करना), (6) दीर्घ कोप (लम्बे समय तक क्रोध युक्त रहना), (10) पृष्ठमांसिंकत्व (निन्दा, चगली), (11) अभीक्ष्णावभाषण (सशंक होने पर भी निश्चित भाषा बोलना), (12) नवाधिकरण-करण, (13) उपशान्तकलहोदीरण, (14) अकालस्वाध्याय, (15) सरजस्कपाणि-भिक्षाग्रहण, (16) शब्दकरण (प्रहररात्रि: बीते विकाल में जोर-जोर से बोलना), (17) झझाकरण (संघविघटनकारी वचन बोलना), (18) कलहकरण (आक्रोशादि रूप कलह करना), (16) सूर्यप्रमाणभोजित्व (सूर्यास्त होने तक दिनभर कुछ न कुछ खाते पीते रहना), और (20) एषणा-असमितत्व (एषणासमिति का उचित ध्यान न रखना)। जिस कार्य के करने से चित्त में अशान्ति एवं अप्रशस्त भावना उत्पन्न हो, ज्ञानादि रत्नत्रय सेआत्मा भ्रष्ट हो, उसे असमाधि कहते हैं, और जिस सुकार्य के करने से चित्त में शान्ति, स्वस्थता और मोक्षमार्ग में अवस्थिति रहे; उसे समाधि कहते हैं / प्रस्तुत में असमाधि से निवृत्त होना और समाधि :में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है। इक्कीसवां और बाईसवां बोल 15: एगवीसाए: सबलेसुः बावीसाए परीसहे / जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [15] इक्कीस शबल दोषों में और बाईस परीषहों में, जो भिक्षु सदैव उपयोग रखना है.. वह संसार में नहीं रहता। 1. समवायांग, समवाय 18. 2. (क) ज्ञाताधर्मकथा सूत्र अ. 1 से 19 तक, (ख) समवायांग, समवाय 19 3. (क) समवायांग, समवाय 20, (ख) दशाश्रुतस्कन्ध दशा 1 (ग) समाधानं समाधि:-चेतसःस्वास्थ्य, मोक्षमार्गऽवस्थितिरित्यर्थः / —माचार्य हरिभद्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org