________________ ""562] [उत्तराध्ययनसून * मनोविनोद के लिए यातना देते हैं / जिन संक्लिष्ट परिणामों से परमाधार्मिक पर्याय प्राप्त होती है, उनमें प्रवृत्ति न करना, उत्कृष्ट परिणामों में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है। * सोलहवां और सत्रहवां बोल . 13. गाहासोलसएहिं तहा असंजमम्मि य / जे मिक्स्य जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // 13] जो भिक्ष गाथा-षोडशक और (सत्रह प्रकार के) असंयम में उपयोग रखता है। वह " संसार में नहीं रुकता। विवेचन---गाथाषोडशक: प्राशय और नाम-यहाँ सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16 अध्ययन गाथाषोडशक शब्द से अभिप्रेत हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) स्वसमय-परसमय, (2) वतालीय (3) उपसर्गपरिज्ञा, (4) स्त्रीपरिज्ञा, (5) नरकविभक्ति, (6) वीरस्तुति, (7) कुशीलपरिभाषा, (8) वीर्य, (9) धर्म, (10) समाधि, (11) मार्ग, (12) समवसरण, (13) याथातथ्य, (14) ग्रन्थ, (15) प्रादानीय और (16) गाथा / इन सोलह अध्ययनों में उक्त प्राचार-विचार का भली-भांति 'पालन करना तथा अनाचार और दुर्विचार से निवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है / 2 / / सत्रह प्रकार का असंयम-(१-६) पृथ्वीकाय से लेकर पंचेन्द्रिय तक 6 प्रकार के जीवों की हिंसा में कृत-कारित-अनुमोदित रूप से प्रवृत्त होना, (10) अजीव-असंयम (असंयमजनक या असंयमवृद्धिकारक वस्तुओं का ग्रहण एवं उपयोग), (11) प्रेक्षा-असंयम-(सजीव स्थान में उठना-बैठना, सोना आदि) (12) उपेक्षा-असंयम-(गृहस्थ के पापकर्मों का अनुमोदन करना; (13) अपहृत्य-असंयम(अविधि से परठना), (14) प्रमार्जना-असंयम-(वस्त्र-पात्रादि का प्रमार्जन न करना) (15) मनः असंयम-(मन में दुर्भाव रखना), (16) वचन असंयम-(दुर्वचन बोलना), (17) काय-असंयम (गमनागमनादि में असंयम रखना)। उपर्युक्त 17 प्रकार के असंयम से निवृत्त होना और 17 प्रकार के संयम में प्रवृत्त होना साधु के लिए आवश्यक है। " अठारहवां, उन्नीसवां और बीसवां बोल 14. बम्भम्मि नायज्झयणेसु ठाणेसु य ऽसमाहिए। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // 14] (अठारह प्रकार के) ब्रह्मचर्य में, (उन्नीस) ज्ञातासूत्र के अध्ययनों में, तथा वीस प्रकार के असमाधिस्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता। 1. (क) समवायांग, समवाय 15, वृत्ति, पत्र 28 (ख) गच्छाचारपइन्ना, पत्र 64-65 (ग) 'एत्थ जेहि परमाधम्मियत्तण भवति तेसु ठाणे सुज वट्टितं / ' ..."---जिनदास महत्तर 2. (क) “गाहाए सह सोलस अज्झयणा तेसु सुत्तगडपढमसूतखंध-अज्झयणेसू इत्यर्थः / " --- ग्रावश्यकणि (जिनदास महत्तर) (ख) समवायांग, समवाय 16 * 3. (क) आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, (ख) समवायांग समवाय 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org