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________________ 558] [उत्तराध्ययनसूत्र षट्काय : स्वरूप और कर्तव्य-जीवनिकाय (संसारी जीवों के समूह) छह हैं। इन्हें षट्काय भी कहते हैं। वे हैं-पृथ्वीकाय, (पृथ्वी रूप शरीर वाले जीव), अप्काय-(जलरूप शरीर वाले), तेजस्काय (अग्निरूप शरीर वाले), वायुकाय-(वायुरूप शरीर वाले जीव) और वनस्पतिकाय (वनस्पतिरूप शरीर वाले) / ये पांच स्थावर भी कहलाते हैं / इनके सिर्फ एक ही इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) होती है। छठा सकाय है, असनामकर्म के उदय से गतिशीलशरीरधारी त्रसकायिक जीव कहलाते हैं। ये चार प्रकार के हैं द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय (नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव)। इन षटकायिक जीवों की हिंसा से निवृत्ति और इनकी दया या रक्षा में प्रवृत्ति करनाकराना साधुधर्म का अंग है। पाहार के विधान-निषेध के छह कारण-इसी शास्त्र में पहले सामाचारी अध्ययन (अ. 26) में मूलपाठ में प्राहार करने के 6 और आहार न करने--आहारत्याग करने के 6 कारण बता चुके हैं / अत: प्रस्तुत में साधु को आहार करने के 6 कारणों से आहार में प्रवृत्ति तथा आहार त्याग करने से निवृत्ति करना हो अभीष्ट है / सात बोल 9. पिण्डोग्गहपडिमासु भयढाणेसु सत्तसु / जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले / / [6] जो भिक्षु (सात) पिण्डावग्रहों में, पाहारग्रहण की सान प्रतिमाओं में और सात भयस्थानों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता। विवेचन-पिण्डावग्रह प्रतिमा : स्वरूप और प्रकार-सात पिण्डेषणाएँ-अर्थात् आहार से सम्बन्धित एषणाएँ हैं, जिनका वर्णन तपोमार्गगति अध्ययन (30 वॉ, गा. 25) में किया जा चुका है। संसृष्टा, असंसृष्टा, उद्धृता, अल्पलेपा, अवगृहीता, प्रगृहीता और उज्झितधर्मा, ये सात पिण्डैषणाएँ आहार से सम्बन्धित सात प्रतिमाएँ (प्रतिज्ञाएँ) हैं। प्रवग्रहप्रतिमा---अवग्रह का अर्थ स्थान है। स्थानसम्बन्धी सात प्रतिज्ञाएँ अवग्रहसम्बन्धी प्रतिमाएँ कहलाती हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) मैं अमुक प्रकार के स्थान में रहूँगा, दूसरे में नहीं। (2) मैं दूसरे साधुओं के लिए स्थान को याचना करूँगा, दूसरे द्वारा याचित स्थान में रहूँगा / यह प्रतिमा गच्छान्तर्गत साधुनों की होती है। (3) मैं दूसरों के लिए स्थान को याचना करूँगा, मगर दूसरों द्वारा याचित स्थान में नहीं रहूँगा। यह प्रतिमा यथालन्दिक साधुओं की होती है / (4) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना नहीं करूँगा, किन्तु दूसरों द्वारा याचित स्थान में रहूँगा / यह जिनकल्पावस्था का अभ्यास करने वाले साधुओं में होती है। (5) मैं अपने लिए स्थान की याचना करूँगा, दूसरों के लिए नहीं। ऐसो प्रतिमा जिनकल्पिक साधुनों को होती है / (6) जिसका स्थान मैं ग्रहण करूँगा, उसी के यहाँ 'पलाल' आदि का संस्तारक प्राप्त होगा तो लुगा, अन्यथा सारो रात उकडू या नषेधिक आसन से बैठा-बैठा बिता दंगा। ऐसी प्रतिमा अभिग्रहधारी या जिनकल्पिक को 1. स्थानांग., स्थान 6 वृत्ति, आवश्यकसूत्रवृत्ति 2. देखिये--उत्तरा. मूलपाठ अ. 26, गा. 33, 34, 35 3. देखिये...-- उत्तरा. अ. 30, गा. 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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