________________ इकतीसवां अध्ययन : चरणविधि] [557 निक्षेपणासमिति-वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों को उपयोगपूर्वक ग्रहण करना एवं जीवरहित प्रमाजित भूमि पर रखना / परिष्ठापनिकासमिति-मलमूत्रादि तथा भुक्तशेष अन्नपान तथा भग्न पात्रादि परठने योग्य वस्तु को जीवरहित एकान्त स्थण्डिलभूमि में परठना-विसर्जन करना / प्रस्तुत पांच समितियाँ सत्प्रवृत्तिरूप होते हुए भी असावधानी से, अयतना से जीवविराधना हो, ऐसी प्रवृत्ति करने से निवृत्त होना भी है / यह तथ्य साधु को ध्यान में रखना है / ' क्रिया : स्वरूप और प्रकार कर्मबन्ध करने वाली चेष्टा क्रिया है / प्रागमों में यों तो विस्तृत रूप से क्रिया के 25 भेद कहे हैं। किन्तु उन सबका सूत्रोक्त पांच क्रियानों में अन्तर्भाव हो जाता है / वे इस प्रकार हैं—कायिकी ---शरीर द्वारा होने वालो, आधिकरणिकी -जिसके द्वारा प्रात्मा नरकादि दुर्गति का अधिकारी होता है (घातक शस्त्रादि अधिकरण कहलाते हैं / ), प्राषिको जीव या अजीव किसी पदार्थ के प्रति द्वेषभाव (ईर्ष्या, मत्सर, घणा आदि) से होने वाली, पारितापनिकी-किसी प्राणी को परितापन (ताडन आदि) से होने वाली क्रिया और प्राणातिपातिकी-स्व और पर के प्राणातिपात से होने वाली क्रिया / / पंचेन्द्रिय-विषय--शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श, ये पांच इन्द्रियविषय हैं, इन पांचों में मनोज्ञ पर राग और अमनोज्ञ पर द्वेष न करना, अर्थात्-पांचों विषयों के प्रति राग-द्वेष से निवृत्ति और तटस्थता-समभाव में प्रवृत्ति ही साधक के लिए आवश्यक है। छह बोल 8. लेसासु छसु काएसु छक्के आहारकारणे / जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [8] जो भिक्षु (कृष्णादि) छह लेश्याओं, पृथ्वीकाय आदि छह कायों, तथा आहार के छह कारणों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता। विवेचन-लेश्याएँ : स्वरूप और प्रकार-लेश्या का संक्षेप में अर्थ होता है-विचारों की तरंग या मनोवृत्ति / प्रात्मा के जिन शुभाशुभ परिणामों द्वारा शुभाशुभ कर्म का संश्लेष होता है, वे परिणाम लेश्या कहलाते हैं। ये लेश्याएँ निकृष्टतम से लेकर प्रशस्ततम तक 6 हैं, अर्थात्-ऐसे परिणामों की धाराएं छह हैं, जो उत्तरोत्तर प्रशस्त होती जाती हैं। वे इस प्रकार हैं--कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। इनमें से साधक को प्रारंभ की तीन अधर्मलेश्याओं से निवृत्ति और तीन धर्मलेश्यायों में प्रवृत्ति करना है। 1. (क) सम्-एकी भावेन, इतिः-प्रवृत्तिः समितिः, शोभन काग्रपरिणामचेप्टेत्यर्थः। -प्राचार्य नमि (क) ईर्याविषये एकीभावेन चेष्टनमीर्यासमितिः। -ग्राचार्य हरिभद्र (ग) भाषासमिति म हितमितासंदिग्धार्थभाषणम् / —प्राचार्य हरिभद्ग (घ) भाण्डमात्रे आदान-निक्षेपणया समितिः सुन्दरचेष्टेत्यर्थः। -प्रा. हरिभद्र (ड) परित: सर्वप्रकार: स्थापनमपुनर्गहणतया न्यासः, तेन निवत्ता पारिष्ठापनिकी। 2. स्थानांग., स्थान 5 वृत्ति / 3. आवश्यक. वृत्ति, आचार्य हरिभद्र 4. (क) संश्लिष्यते प्रात्मा तेस्तै: परिणामान्तरैः ।....."लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते ।-आवश्यक. चणि (ख) देखिये--उत्तराध्ययनसूत्र, लेश्या-अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org