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________________ 556] [उत्तराध्ययनसूत्र चाहिए / कषाय चार हैं---क्रोध, मान, माया और लोभ / साधु को इन चारों से निवृत्त और शान्ति, नम्रता या मृदुता, सरलता और संतोष में प्रवृत्त होना चाहिए।' संज्ञा : स्वरूप और प्रकार-संज्ञा पारिभाषिक शब्द है। मोहनीय और असातावेदनीय कर्म के उदय से जब चेतनाशक्ति विकारयुक्त हो जाती है, तब 'संज्ञा'-(विकृत अभिलाषा) कहलाती है। संज्ञाएँ चार हैं----आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहमंज्ञा / ये संज्ञाएँ क्रमशः क्षुधावेदनीय, भयमोहनीय, वेदमोहोदय और लोभमोहनीय के उदय से जागृत होती हैं। साधु को इन चारों संज्ञाओं से निवृत्त और निराहारसंकल्प, निर्भयता, ब्रह्मचर्य एवं निष्परिग्रहता में प्रवृत्त होना चाहिए / दो ध्यान-यहाँ जिन दो ध्यानों से निवृत्त होने का संकेत है, वे हैं—प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान / निश्चल होकर एक ही विषय वा चिन्तन करना ध्यान है। ध्यान चार प्रकार के हैं—ार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शक्लध्यान / इनका विवेचन तीसवें अध्ययन में किया जा चुका है। पांच बोल 7. वएसु इन्दियत्थेसु समिईसु किरियासु य / जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छई मण्डले // [7] जो भिक्षु व्रतों (पांच महाव्रतों) और समितियों के पालन में तथा इन्द्रियविषयों और (पांच) क्रियाओं के परिहार में सदा यत्नशील रहता है; वह संसार में नहीं रहता। विवेचन-पंचमहाव्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये जब मर्यादित रूप में ग्रहण किये जाते हैं, तब अणुव्रत कहलाते हैं / अणुव्रत का अधिकारी गृहस्थ होता है / वह हिमा आदि का सर्वथा परित्याग नहीं कर सकता। जबकि साधु-साध्वी वर्ग का जीवन गृहस्थी के उत्तरदायित्व से मुक्त होता है, वह पूर्ण आत्मबल के साथ पूर्ण चारित्र के पथ पर अग्रसर होता है और अहिंसा आदि महाव्रतों का तीन करण और तीन योग से (यानी नव कोटि से) सदा सर्वथा पूर्ण साधना में प्रवृत्त होता है / ये पंचमहाव्रत साधु के पांच मूलगुण कहलाते हैं / समिति : स्वरूप और प्रकार—विवेकयुक्त यतना के साथ प्रवृत्ति करना—समिति है। समितियाँ पांच है-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और परिष्ठापनासमिति। ईर्यासमिति युगपरिमाण भूमि को एकाग्रचित्त से देखते हुए, जीवों को बचाते हुए यतनापूर्वक गमनागमन करना / भाषासमिति आवश्यकतावश भाषा के दोषों का परिहार करते हुए यतनापूर्वक हित, मित एवं स्पष्ट बचन बोलना / एषणासमिति—गोचरी संबंधी 42 दोपों से रहित शुद्ध आहार-पानी तथा वस्त्र-पात्र आदि उपधि का ग्रहण एवं परिभोग करना / आदानभाण्डमात्र 1. (क) कथ्यते प्राणी विविधैर्दु खरस्मिन्निति कष: संसारः / तस्य आयो लाभो येभ्यस्ते कषायाः / -प्राचार्य नमि (ख) 'चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचति मलाई पुणब्भवस्स / / ' –दशकालिक 8 अ. 2. स्थानांगसूत्र स्थान 4, वृत्ति 3. अावश्यक सूत्र हरिभद्रीय टीका "पाचरितानि महद्भिर्यच्च महान्तं प्रसाध्यन्त्यर्थम् / स्वयमपि महान्ति यस्मान् महाव्रतानीत्यतस्तानि / / " —ज्ञानार्णव, आचार्य शुभचन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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