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________________ इजतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि] निवृत्ति और निःशल्यता में प्रवृत्ति आवश्यक है / निःशल्य होने पर ही व्यक्ति व्रतो या महाव्रती बन सकता है।' तीन उपसर्ग-जो शारीरिक-मानसिक कष्टों का सृजन करते हैं, वे उपसर्ग हैं। उपसर्ग मुख्यत: तीन हैं—देवसम्बन्धी उपसर्ग-देवों द्वारा हास्यवश, द्वेषवश या परीक्षा के निमित्त दिया गया कष्ट, तिर्यञ्चसम्बन्धी उपसर्ग-तिर्यञ्चों द्वारा भय, प्रद्वेष, आहार, स्वसंतान रक्षण या स्थानसंरक्षण के लिए दिया जाने वाला कष्ट और मनष्यसम्बन्धी उपसर्ग-मनष्यों द्वारा हास्य विद्वेष, विमर्श या कुशील-सेवन के लिए दूसरों को दिया जाने वाला कष्ट / साधु स्वयं उपसर्गों को सहन करने में प्रवृत्त होता है, परन्तु उपसर्ग देने वाले को या दूसरे को स्वयं द्वारा उपसर्ग देने, दिलाने से निवृत्त होता है / ' चार बोल 46. विगहा-कसाय-सन्नाणं झाणाणं च दुयं तहा / जे भिक्खू बज्जई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [6] जो भिक्षु (चार) विकथाओं का, कषायों का, संज्ञाओं का तथा आर्त और रौद्र, दो ध्यानों का सदा वर्जन (त्याग) करता है, वह संसार में नहीं रहता। विवेचनविकथा : स्वरूप और प्रकार-संयमी जीवन को दूषित करने वाली, विरुद्ध एवं निरर्थक कथा (वार्ता) को विकथा कहते हैं। साधु को विकथाओं से उतना ही दूर रहना चाहिए, जितना कालसपिणी से दूर रहा जाता है। विकथा वही साधु करता है जिसे अध्यात्मसाधना में ध्यान, मौन, जप, स्वाध्याय आदि में रस न हो, व्यर्थ की गप्पें हांकने वाला और आहारादि की या राजनीति की व्यर्थ चर्चा करने वाला साधु अपने अमूल्य समय और शक्ति को नष्ट करता है। मुख्यतया विकथाएँ 4 हैं स्त्रीविकथा-स्त्रियों के रूप, लावण्य, वस्त्राभूषण आदि से सम्बन्धित बातें करना, भक्तविकथा-भोजन की विविधतानों आदि से सम्बन्धित चर्चा में व्यस्त रहना,खाने-पीने की चर्चा वार्ता करना / देशविकथा--देशों की विविध वेषभूषा, शृगार, रचना, भोजनपद्धति, गृहनिर्माणकला, रीतिरिवाज प्रादि की निन्दा-प्रशंसा करना / राजविकथा-शासकों को सेना, रानियों, युद्धकला भोगविलास आदि की चर्चा करना / साधु को इन चारों विकथाओं से निवृत्त होना एवं प्राक्षेषिणी, विक्षेपिणी, उद्वेगिनो, संवेगिनी आदि वैराग्यरस युक्त धर्मकथाओं में प्रवृत्त होना चाहिए। कषाय : स्वरूप एवं प्रकार-कष अर्थात् संसार को जिससे पाय-प्राप्ति हो / जिसमें प्राणो विविध दुःखों के कारण कष्ट पाते हैं, उसे कष यानो संसार कहते हैं। कषाय हो कर्मोत्पादक हैं और कर्मों से हो दुःख होता है / अतः साधु को कषायों से निवृत्ति और अकषाय भाव में प्रवृत्ति करनी 1. 'शल्यतेऽनेनेति शल्यम्।'-प्राचार्य हरिभद्र, 'शल्यते बाध्यते जन्तुरेभिरिति शल्यानि।' -बहदवत्ति, पत्र 612 निश्शल्यो व्रती तत्त्वार्थसूत्र 7.13 2. स्थानांग. वृत्ति, स्थान 3 3. (क) विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा।-प्राचार्य हरिभद्र (ख) स्थानांगसूत्र स्थान 4, वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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