________________ 554] [उत्तराध्ययनसून विवेचन--राग-द्वेषरूप बन्धन-राग और द्वेष, ये दोनों बन्धन हैं, पापकर्मबन्ध के कारण हैं / इसलिए इन्हें पाप तथा पापकर्म में प्रवृत्ति कराने वाला कहा है। अतः चरणविधि के लिए साधक को राग-द्वेष से निवृत्ति और वीतरागता में प्रवृत्ति करनी चाहिए। ये राग और द्वेष दो बोल मुख्यतया निवृत्त्यात्मक हैं।' तीन बोल v4. दण्डाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियं / __ जे भिक्खू चयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // _[4] तीन दण्डों, तीन गौरवों और तीन शल्यों का जो भिक्षु सदैव त्याग करता है, वह संसार में नहीं रहता। 5. दिवे य जे उबसग्गे तहा तेरिच्छ-माणुसे / जे भिक्खू सहई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [5] दिव्य (देवतासंबंधी), मानुष (मनुष्यसम्बन्धी), और तिर्यञ्चसम्बन्धी जो उपसर्ग हैं, उन्हें जो भिक्षु सदा (समभाव से) सहन करता है, वह संसार में नहीं रहता / विवेचन-दण्ड और प्रकार-कोई अपराध करने पर राजा या समाज के नेता द्वारा बन्धन, वध, ताडन आदि के रूप में दण्डित करना द्रव्यदण्ड है तथा जिन अपराधों या हिंसादिजनक प्रवृत्तियों से प्रात्मा दण्डित होती है, वह भावदण्ड है / प्रस्तुत में भावदण्ड का निर्देश है। भावदण्ड तीन प्रकार के हैं—-मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड / दष्प्रवत्ति में संलग्न मन, वचन और काय. ये तीनों दण्डरूप हैं। इनसे चारित्रात्मा दण्डित होता है। अतः साधु को इन तीनों दण्डों का त्याग (निवृत्ति) करना और प्रशस्त मन, वचन, काया में प्रवृत्त होना चाहिए / तीन गौरव-अहंकार से उत्तप्त चित्त की विकृत स्थिति का नाम गौरव है। यह भी ऋद्धि (ऐश्वर्य), रस (स्वादिष्ट पदार्थों) और साता (सुखों) का होने से तीन प्रकार का है। साधक को इन तीनों से निवृत्त और निरभिमानता, मृदुता, नम्रता एवं सरलता में प्रवृत्त होना चाहिए। तीन शल्य-द्रव्यशल्य बाण, कांटे की नोक को कहते हैं। वह जैसे तीव्र पीड़ा देता है, वैसे ही साधक को प्रात्मा में प्रविष्ट हुए दोषरूप ये भावशल्य निरन्तर उत्पीडित करते रहते हैं, प्रात्मा में चुभते रहते हैं / ये भावशल्य तीन प्रकार के हैं- मायाशल्य (कपटयुक्त आचरण), निदानशल्य (ऐहिक-पारलौकिक भौतिक सुखों की वांछा से तप-त्यागादिरूप धर्म का सौदा करना) और मिथ्यादर्शनशल्य.-..-आत्मा का तत्त्व के प्रति मिथ्या--सिद्धान्तविपरीत–दष्टिकोण। इन तीनों से 1. (क) बचतेऽष्टविधेन कर्मणा येन हेतुभूतेन तद् बन्धनम् / -प्राचार्य नमि (ख) स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेण शिलष्यते यथा गात्रम् / रागद्वे पाक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम् / ---प्रावश्यक हरिभद्रीय टीका __ "दण्डयते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः द्रव्यभावभेदभिन्ना: भावदण्डैरिहाधिकारः / मनःप्रभृतिभिश्च दुष्प्रयुक्त दण्ड्यते प्रात्मेति / " -प्राचार्य हरिभद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org