________________ एगतीसइमं अज्झयणं : इकतीसवाँ अध्ययन चरणविही : चरणविधि चरण-विधि के सेवन का माहात्म्य 1. चरणविहिं पवक्खामि जीवस्स उ सुहावहं / जं चरित्ता बहू जीवा तिण्णा संसारसागरं / / [1] जीव को सुख प्रदान करने वाली उस चरणविधि का कथन करूंगा, जिसका आचरण करके बहुत-से जीव संसारसमुद्र को पार कर गए हैं / विवेचन-चरणविधि-चरण अर्थात् चारित्र की विधि, चारित्र का अनुष्ठान करने का शास्त्रोक्त विधान, जो कि प्रवृत्ति-निवृत्त्यात्मक है। आशय यह है कि अचारित्र से निवृत्ति और चारित्र में प्रवृत्ति ही वास्तविक चरणविधि है। चारित्र क्या और अचारित्र क्या है ? यह आगे की गाथाओं में कहा गया है। चारित्र ही वह नाव है, जो साधक को संसारसमुद्र से पार लगा मोक्ष के तट पर पहुँचा देती है / परन्तु चारित्र केवल भावना या वाणी की वस्तु नहीं है, वह अाचरण को वस्तु है।' चरण-विधि को संक्षिप्त झांको 42. एगओ विरई कुज्जा एगो य पवत्तणं / __ असंजमे नियत्ति च संजमे य पवत्तणं // [2] साधक को एक ओर से विरति (निवृत्ति) करनी चाहिए और एक ओर से प्रवृत्ति। (अर्थात्-) असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति (करनी चाहिए / ) विवेचन-चरणविधि का स्वरूप-प्रसंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति, ये दोनों चरणात्मक अर्थात् -पाचरणात्मक हैं। निवृत्ति में असंयम उत्पन्न करने वाली, बढ़ाने वाली, परिणाम में असंयमकारक वस्तु का विधिवत् त्याग-प्रत्याख्यान करना तथा प्रवृत्ति में संयमजनक, संयमवर्द्धक और परिणाम में संयमकारक वस्तु को स्वीकार करना, दोनों ही समाविष्ट हैं / यह चरणविधि की संक्षिप्त झाँकी है / (यह एक बोल वाली है।) दो प्रकार के पापकर्मबन्धन से निवृत्ति - 3. रागद्दोसे य दो पावे पावकम्मपवत्तणे / जे भिक्खू सम्भई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // [3] राग और द्वेष, ये दो पापकर्मों के प्रवर्तक होने से पापरूप हैं / जो भिक्षु इनका सदा निरोध करता है, वह संसार (जन्म-मरणरूप मण्डल) में नहीं रहता / 1. (क) उत्तरा. नियुक्ति गा. 52 (ख) उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 3, पृ. 1128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org