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________________ इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि अध्ययन-सार प्रस्तुत अध्ययन का नाम चरणविधि (चरणविही) है। चारित्र को विधि का अर्थ है-चारित्र में विवेकपूर्वक प्रवृत्ति। चारित्र का प्रारम्भ संयम से होता है। अतः असंयम से निवृत्ति और विवेक-पूर्वक संयम में प्रवृत्ति ही चारित्रविधि है। अविवेकपूर्वक प्रवृत्ति में संयम की सुरक्षा कठिन है / अतः विवेकपूर्वक असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति हो चारित्र है।। * चारित्रविधि का प्रारम्भ संयम से होता है, इसलिए उसकी पाराधना-साधना करते हुए जिन विषयों को स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए, उन्हीं का इस अध्ययन में संकेत है / 11 उपासक प्रतिमाओं का सर्वविरति चारित्र से सम्बन्ध न होते हुए भी देशबिरति चारित्र से इनका सम्बन्ध है / अतः वे कथंचित् उपादेय होने से उनका यहाँ उल्लेख किया गया है। इस प्रकार असंयम (से निवृत्ति) के एक बोल से लेकर 33 वें बोल तक का इसमें चारित्र के विविध पहलुओं की दृष्टि से निरूपण है। * उदाहरणार्थ-साधु असंयम से दूर रहे, राग और द्वेष, ये चारित्र में स्खलना पैदा करते हैं, उनसे दूर रहे, त्रिविध दण्ड, शल्य और गौरव से निवृत्त हो, तीन प्रकार के उपसर्गों को सहन करने से चारित्र उज्ज्वल होता है / विकथा, कषाय, संज्ञा और अशुभ ध्यान, ये त्याज्य हैं, क्योंकि ये चारित्र को दूषित करने वाले हैं / इसी प्रकार कुछ बातें त्याज्य हैं, कुछ उपादेय हैं, और कुछ ज्ञेय हैं। निष्कर्ष यह है कि साधक को दुष्प्रवृत्तियों से, असंयमजनक प्राचरणों से दूर रहकर सत्प्रवृत्तियों और संयमजनक अाचरणों में प्रवृत्त होना चाहिए / इसका परिणाम संसारचक्र के परिभ्रमण से मुक्ति के रूप में प्राप्त होता है। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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