________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति] [551 उत्थित--(काया से बैठा किन्तु ध्यान से खड़ा-यानी धर्म-शुक्लध्यानलीन) एवं (4) उपविष्टउपविष्ट–(काया और ध्यान दोनों से बैठा हुआ, अर्थात् काया से बैठा और ध्यान से प्रार्तरौद्रध्यानलीन)। इन चारों विकल्पों में प्रथम और तृतीय प्रकार उपादेय हैं, शेष दो त्याज्य हैं / ' द्विविध तप का फल 37. एयं तवं तु दुविहं जे सम्म आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पण्डिए॥ -त्ति बेमि। [37] इस प्रकार जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तप का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार से विमुक्त हो जाता है। --ऐसा मैं कहता हूँ। // तपोमार्गगति : तीसवाँ अध्ययन समाप्त / / 1. (क) योगशास्त्र प्र. 3, पत्र 250 (ख) भमवती अाराधना, वि. 116 / 278 / 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org