________________ 550] [उत्तराध्ययनसूत्र अन्तर सहित समपाद होकर प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो। हाथ आदि अंगों का संचालन न करे / काय को न तो अकड़ कर खड़ा हो और न ही झुका कर / देव-मनुष्य-तिर्यंचकृत तथा अचेतनकृत सभी उपसर्गों को कायोत्सर्ग-स्थित मुनि सहन करे / कायोत्सर्ग में मुनि ईर्यापथ के अतिचारों का शोधन करे तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तन करे। प्रायः वह एकान्त, शान्त, कोलाहल एवं आवागमन से रहित अबाधित स्थान में कायोत्सर्ग करे / ' कायोत्सर्ग का प्रयोजन-मुनि अपने शरीर के प्रति ममत्वत्याग के अभ्यास के लिए, ईर्यापथ / अन्य अवसरों पर हुए दोषों के शोधन के लिए, दोषों के पालोचन के लिए, कर्मनाश एवं दुःखक्षय के लिए या मुक्ति के लिए कायोत्सर्ग करे / कायोत्सर्ग का मख्य प्रयोजन तो काय से प्रात्मा को पृथक् (वियुक्त) करना है। आत्मा के सान्निध्य में रहना है तथा स्थान, मौन और ध्यान के द्वारा परद्रव्यों में 'स्व' का व्युत्सर्ग करना है। निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशात्याग, दोषोच्छेद, मोक्षमार्गप्रभावना और तत्परत्व आदि के लिए दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग तप आवश्यक है। प्रयोजन की दृष्टि सेः कायोत्सर्ग के दो रूप होते हैं—चेष्टाकायोत्सर्ग–अतिचारशुद्धि के लिए और अभिनवकायोत्सर्ग-- विशेष विशुद्धि या प्राप्त कष्ट को सहन करने के लिए। अतिचारशुद्धि के लिए किये जाने वाले कायोत्सर्ग के दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक आदि अनेक विकल्प होते हैं / ये कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण के समय किये जाते हैं।' मानसिक वाचिक कायिक कायोत्सर्ग-मन से शरीर के प्रति ममत्वबुद्धि की निवृत्ति मानसकायोत्सर्ग है, 'मैं शरीर का त्याग करता हूँ, ऐसा वचनोच्चारण करना वचनकृत, कायोत्सर्ग है और बांहें नीचे फैला कर तथा दोनों पैरों में सिर्फ चार अंगुल फैला कर तथा दोनों पैरों में सिर्फ चार अंगल का अन्तर रखकर निश्चल खडे रहना शारीरिक कायोत्सर्ग है / इस त्रिविध कायोत्सर्ग में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण करना आवश्यक है। ___कायोत्सर्ग के प्रकार हेमचन्द्राचार्य के मतानुसार कायोत्सर्ग खड़े-खड़े, बैठे-बैठे और सोतेसोते तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है / ऐसी स्थिति में कायोत्सर्ग और स्थान दोनों एक हो जाते हैं / भगवती आराधना के अनुसार ऐसे कायोत्सर्ग के चार प्रकार होते हैं-(१) उत्थितउत्थित-(काया एवं ध्यान दोनों से उन्नत (खड़ा हुआ) धर्म-शुक्लध्यान में लीन), (2) उत्थितउपविष्ट-काया से उन्नत (खड़ा) किन्तु ध्यान से प्रात-रौद्रध्यानलीन अवनत, (3) उपविष्ट 1. (क) मूलाराधना वि. 2 / 116, पृ. 278 (ख) भगवती आराधना वि. 116 / 278120 (ग) वही, (मूल) 550763 2. (क) मूलाराधना 662-666, 663-665, (ख) वही, 21116 पृ. 278 (ग) योगशास्त्र (हेमचन्द्राचार्य) प्रकाश 3, पत्र 250 (घ) राजवार्तिक 9 / 26 / 10 / 625 (ङ) बृहत्कल्पभाष्य : इह द्विधा कायोत्सर्ग:-वेष्टायामभिभवे च / गा. 5958 (च) योगशास्त्र प्रकाश 3, पत्र 250 3. (क) भगवती आराधना विजयोदया 5096 729 / 16 (ख) योगशास्त्र प्रकाश 3, पत्र 250 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org