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________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति] {549 भावव्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं-(१) कषायव्युत्सर्ग, (2) संसारव्युत्सर्ग (संसारपरिभ्रमण का त्याग) और (3) कर्मव्युत्सर्ग-(कर्मपुद्गलों का विसर्जन) / धवला के अनुसार-शरीर एवं प्राहार में मन, वचन की प्रवृत्तियों को हटा कर ध्येय वस्तु के प्रति एकाग्रतापूर्वक चित्तनिरोध करना व्युत्सर्ग है। अनगारधर्मामृत में व्युत्सर्ग की निरुक्ति की है-बन्ध के हेतुभूत विविध प्रकार के बाह्य एवं प्राभ्यन्तर दोषों का विशेष प्रकार से विसर्जन (त्याग) करना।' कायोत्सर्ग के लक्षण-व्युत्सर्ग का ही एक प्रकार कायोत्सर्ग है / (1) नियमसार में कायोत्सर्ग का लक्षण कहा गया है-'काय आदि पर द्रव्यों में स्थिरभाव छोड़कर अात्मा का निर्विकल्परूप से ध्यान करना कायोत्सर्ग है। (2) देवसिक निश्चित क्रियानों में यथोक्त कालप्रमाण-पर्यन्त उत्तम क्षमा आदि जिनेन्द्र गुणों के चिन्तन सहित देह के प्रति ममत्व छोड़ना क अचेतन, नश्वर एवं कर्मनिर्मित समझ कर केवल उसके पोषण आदि के लिए जो कोई कार्य नहीं करता, वह, कायोत्सर्ग-धारक है। जो मुनि शरीर-संस्कार के प्रति उदासीन हो, भोजन, शय्या आदि की अपेक्षा न करता हो, दुःसह रोग के हो जाने पर भी चिकित्सा नहीं करता हो, शरीर पसीने और मैल से लिप्त हो कर भी जो अपने स्वरूप के चिन्तन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन के प्रति मध्यस्थ हो और शरीर के प्रति ममत्व न करता हो, उस मुनि के कायोत्सर्ग नामक तप होता है। (4) खड़े-खड़े या बैठे-बैठे शरीर तथा कषायों का त्याग करना कायोत्सर्ग है / (5) यह अशुचि अनित्य, विनाशशील, दोषपूर्ण, असार एवं दुःखहेतु एवं अनन्तसंसार परिभ्रमण का कारण, यह शरीर मेरा नहीं है और न मैं इसका स्वामी हूँ। मैं भिन्न हूँ, शरीर भिन्न है, इस प्रकार का भेदविज्ञान प्राप्त होते ही शरीर रहते हुए भी शरीर के प्रति आदर घट जाने की तथा ममत्व हट जाने की स्थिति का नाम कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग की विधि-कायोत्सर्गकर्ता काय के प्रति निःस्पृह हो कर जीव-जन्तुरहित स्थान में खंभे की तरह निश्चल एवं सीधा खड़ा हो। दोनों बाहु घुटनों की अोर लम्बी करे। चार अंगुल के 1. (क) जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष भा. 3, पृ. 627 (ख) भगवती. 25171802 (ग) प्रोपपातिक. सू. 26 (घ) 'सरोराहारेसु हु मणवयणपवुत्तीओ ओसारियज्झयाम्म एअग्गेण चित्तणिरोहो वि ओसम्गो गाम / ' ---धवला 8 / 3,4285 (ङ) वाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा वन्ध हेतवः / यस्तेषामुत्तमः सर्गः, स व्युत्सगों निरुच्यते / / अनगारधर्मामृत 7 / 94721 2. (क) कायाईपरदम्बे थिरभावं परिहरित अपाणं / तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ निविअप्पेण // -नियमसार 121 (ख) देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि / जिण-गुणचितणजुत्तो काग्रोसम्गो तणुविसग्गो // -मूलाराधना 28 (ग) 'परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवत्तिः कायोत्सर्गः।' -चारित्रसार 5603 (घ) योगसार अ. 5152 (3) कात्तिकेयानुप्रेक्षा 467-468 (च) भगवती पाराधना वि.११६३२७८१३ (सारांश) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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