________________ 54] [उत्तराध्ययनसूत्र चार अनुप्रेक्षाएँ-(१) एकत्व-अनुप्रेक्षा, (2) अनित्यत्वानुप्रेक्षा, (3) अशरणानुप्रेक्षा (प्रशरणदशा का चिन्तन) और (4) संसारानुप्रेक्षा (संसार संबंधी चिन्तन)।' शुक्लध्यान : आत्मा के शुद्ध रूप की सहज परिणति को शुक्लध्यान कहते हैं / इसके भी चार प्रकार हैं-(१) पृथक्त्ववितर्कसविचार-श्रुत के आधार पर किसी एक द्रव्य में (परमाणु आदि जड़ में या आत्मरूप चेतन में) उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व, अमूर्तत्त्व आदि अनेक पर्यायों का द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक आदि विविध नयों द्वारा भेदप्रधान चिन्तन करना / (2) एकत्ववितर्कअविचार-ध्याता द्वारा अपने में सम्भाव्य श्रत के आधार पर एक ही पर्यायरूप अर्थ को लेकर उस पर एकत्व-(अभेद) प्रधान चिन्तन करना, एक ही योग पर अटल रहना / (3) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति--- सर्वज्ञ भगवान् जब योगनिरोध के क्रम में सूक्ष्म काययोग का आश्रय लेकर शेष योगों को रोक लेते हैं, उस समय का ध्यान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति कहलाता है। (4) समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति-जब शरीर की श्वासोच्छवास आदि सूक्ष्मक्रियाएँ भी बंद हो जाती हैं और प्रात्मप्रदेश सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाते हैं, तब वह ध्यान समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति कहलाता है / चार लक्षण–अव्यथ (व्यथा का अभाव), असम्मोह, (सूक्ष्म पदार्थविषयक मूढता का अभाव), विवेक (शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान) और व्युत्सर्ग (शरीर और उपधि पर अनासक्ति भाव)। चार आलम्बन-क्षमा, मुक्ति (निर्लोभता), मृदुता और ऋजुता / चार अनुप्रेक्षाएँ-(१) अनन्तवृत्तिता (संसारपरम्परा का चिन्तन),(२) विपरिणाम-अनुप्रेक्षा (वस्तुओं के विविध परिणामों पर चिन्तन), (3) अशुभ-अनुप्रेक्षा (पदार्थों की अशुभता का चिन्तन) और (4) अपाय-अनुप्रेक्षा (अपायों-दोषों का चिन्तन)।' 6. व्युत्सर्ग : स्वरूप और विश्लेषण 36. सयणासण-ठाणे वा जे उ भिक्ख न बावरे / कायस्स विउस्सग्गो छटो सो परिकित्तिओ। [36] शयन में, प्रासन में और खड़े होने में जो भिक्षु शरीर से हिलने-डुलने की चेष्टा नहीं करता, यह शरीर का व्युत्सर्ग, व्युत्सर्ग नामक छठा (आभ्यन्तर) तप कहा गया है / विवेचन-व्यत्सर्ग-तप : लक्षण, प्रकार और विधि-बाहर में क्षेत्र, वास्तु, शरीर, उपधि, गण, भक्त-पान आदि का और अन्तरंग में कषाय, संसार और कर्म आदि का नित्य अथवा अनियत काल के लिए त्याग करना व्युत्सर्गतप है। इसी कारण द्रव्य और भावरूप से व्युत्सर्गतप मुख्यतया दो प्रकार का आगमों में वर्णित है। द्रव्यव्युत्सर्ग के चार प्रकार-(१) शरीरव्युत्सर्ग (शारीरिक क्रियाओं में चपलता का त्याग), (2) गणव्युत्सर्ग-(विशिष्ट साधना के लिए गण का त्याग), (3) उपधिव्युत्सर्ग (वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों का त्याग) और (4) भक्त-पानव्युत्सर्ग (ग्राहार-पानी का त्याग)। 1. तत्त्वार्थसूत्र (पं, सुखलालजी) 9 / 37 2. वही (पं. सुखलालजी) 9 / 39-46, पृ. 229-230 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org