________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति] [547 ग्राशय से तथा शुद्ध लेश्या के आलम्बन से और वस्तु के यथार्थस्वरूप के चिन्तन से उत्पन्न हुमा ध्यान प्रशस्त है / प्रस्तुत गाथा में दो प्रशस्त ध्यान ही उपादेय तथा दो अप्रशस्त ध्यान त्याज्य बताए हैं।' जीव का प्राशय तीन प्रकार का होने से कई संक्षेपरुचि साधकों ने तीन प्रकार का ध्यान माना है- (1) पुण्यरूप शुभाशय,(२) पापरूप अशुभाशय और(३) शुद्धोपयोग रूप प्राशयवाला / ' आर्तध्यान : लक्षण एवं प्रकार-आर्तध्यान के 4 लक्षण हैं- प्राक्रन्द, शोक, अश्रुपात और विलाप / इसके चार प्रकार हैं—(2) अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए सतत चिन्ता करना, (2) अातंकादि दुःख प्रा पड़ने पर उसके निवारण की सतत चिन्ता करना, (3) प्रिय वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता करना अथवा मनोज्ञ वस्तु या विषय का संयोग होने पर उसका वियोग न होने की चिन्ता करना। (4) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता या संकल्प करना अथवा प्रीतिकर कामभोग का संयोग होने पर उसका वियोग न होने की चिन्ता करना / इसीलिए चेतना की प्रार्त या वेदनामयी एकाग्र परिणति को प्रार्तध्यान कहा गया है / रौद्रध्यान : लक्षण एवं प्रकार- रुद्र अर्थात् क्रूर-कठोर चित्त के द्वारा किया जाने वाला ध्यान रौद्रध्यान है। इसके चार लक्षण हैं-(१) हिंसा आदि से प्रायः विरत न होना, (2) हिंसा आदि की प्रवृत्तियों में जुटे रहना, (3) अज्ञानवश हिंसा में प्रवृत्त होना और(४) प्राणांतकारी हिंसा आदि करने पर भी पश्चात्ताप न होना / प्रकार- हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और प्राप्त विषयों के संरक्षण की वृत्ति से क्रूरता व कठोरता उत्पन्न होती है। इन्हीं को लेकर जो सतत धाराप्रवाह चितन होता है, वह क्रमशः चार प्रकार का होता है--हिंसानुबन्धो, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी / ये दोनों ध्यान पापाश्रव के हेतु होने से अप्रशस्त हैं। साधना की दृष्टि से आर्त्त-रौद्रपरिणतिमयी एकाग्रता विघ्नकारक ही है / मोक्ष के हेतुभूत ध्यान दो हैं --धर्मध्यान और शुक्लध्यान / ये दोनों प्रशस्त हैं और पाश्रव निरोधक हैं। धर्मध्यान : लक्षण, प्रकार, आलम्बन और अनुप्रेक्षाएँ- वस्तु के धर्म या सत्य अथवा प्राज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान के चिन्तन-अन्वेषण में परिणत चेतना की एकाग्रता को 'धर्मध्यान' कहते हैं / इसके 4 लक्षण हैं- आज्ञारुचि -(प्रवचन के प्रति श्रद्धा), (2) निसर्गरुचि--(स्वभावतः सत्य में श्रद्धा), (3) सूत्ररुचि-(शास्त्राध्ययन से उत्पन्न श्रद्धा) और (3) अवगाढरुचि-(विस्तृतरूप से सत्य में अवगाहन करने की श्रद्धा)। चार आलम्बन-वाचना, प्रतिपच्छता, पूनरावति करना और अर्थ के सम्बन्ध में चिन्तनअनुप्रेक्षण। 1. (क) मूलाराधना 681-672 (ख) ज्ञानार्णव 3 / 29-31 (ग) चारित्रसार 167 / 2 2. ज्ञानार्णव 327-28 3. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलाल जी) 9 / 29, 9 / 30, 9 / 31-34 4. वही (पं. सुखलालजी) 9 / 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org