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________________ 546] [ उत्तराध्ययनसूत्र स्वाध्याय : सर्वोत्तम तप-सर्वज्ञोपदिष्ट बारह प्रकार के तप में स्वाध्यायतप के समान न तो अन्य कोई तप है और न ही होगा। सम्यग्ज्ञान से रहित जीव करोड़ों भवों में जितने कर्मों का क्षय कर पाता है, ज्ञानी साधक तीन गुप्तियों से गुप्त होकर उतने कर्मों को अन्तर्मुहर्त में क्षय कर देता है। एक उपवास से लेकर पक्षोपवास या मासोपवास करने वाले सम्यग्ज्ञानरहित जीव से भोजन करने वाला स्वाध्याय-तत्पर सम्यग्दृष्टि साधक परिणामों की अधिक विशुद्धि कर लेता है।' 5. ध्यान : लक्षण और प्रकार ~35. अट्टरुदाणि धज्जित्ता झाएज्जा सुसमाहिए। धम्मसुक्काइं झाणाई झाणं तं तु बुहा वए / [35] आर्त और रौद्र ध्यान को त्याग कर जो सुसमाहित मुनि धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याता है, ज्ञानी जन उसे ही 'ध्यानतप' कहते हैं / विवेचन-ध्यान के लक्षण--(१) एकाग्रचिन्तन ध्यान है, (2) जो स्थिर अध्यवसान (चेतन) है, वही ध्यान है। (3) चित्तविक्षेप का त्याग करना ध्यान है / अथवा (4) अपरिस्पन्दमान अग्निज्वाला (शिखा) की तरह अपरिस्पन्दमान ज्ञान ही ध्यान है / अथवा (5) अन्तर्मुहर्त तक चित्त का एक वस्तु में स्थित रहना छदमस्थों का ध्यान है और वीतराग पुरुष का ध्यान योगनिरोध रूप है / अथवा (6) मन-वचन-काया की स्थिरता को भी ध्यान कहते हैं।' ध्यान के प्रकार और हेयोपादेय ध्यान--एकाग्रचिन्तनात्मक ध्यान की दृष्टि से उसके चार प्रकार होते हैं- (1) प्रार्त, (2) रौद्र, (3) धर्म और (4) शुक्ल / आर्त और रौद्र, ये दोनों ध्यान अप्रशस्त हैं। पुत्र-शिष्यादि के लिए, हाथी-घोड़े आदि के लिए, आदर-पूजन के लिए, भोजन-पान के लिए, मकान या स्थान के लिए, शयन, प्रासन, अपनी भक्ति एवं प्राण रक्षा के लिए, मैथुन की इच्छा या कामभोगों के लिए. प्राज्ञानिर्देश, कीति, सम्मान, वर्ण (प्रशंसा) या प्रभाव या प्रसिद्धि के लिए मन का संकल्प (चिन्तन) अप्रशस्त ध्यान है। जीवों के पापरूप प्राशय के वश से तथा मोह, मिथ्यात्व, कषाय तथा तत्त्वों के अयथार्थरूप विभ्रम से उत्पन्न हुअा ध्यान अप्रशस्त एवं असमीचीन है / पुण्यरूप 1. बारसविहम्मि य तवे सभंत रबाहिरे कुसल दिन / ण वि अस्थि, ण वि य होहिदि सज्झायसमं तबोकम्मं / जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं / तं पाणी तिहि गुत्तो, खवेदि अंतोमुहूत्ते ण / / छटुमदसमदुवालसेहिं अण्णाणियस्स जा सोही। तत्तो बहुगुणदरिया होज्ज ह जिमिदस्स णाणिस्स / / -भगवती आराधना 107-108-109 (क) तत्त्वार्थ. 9.20 (ख) 'जं थिरमज्झबसाणं तं झाणं / ' -ध्यानशतक गा. 2 (ग) 'चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम' -सर्वार्थसिद्धि 9 / 20 / 439 (घ) अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। -तत्त्वार्थ. श्रुतसागरीय वत्ति, 9127 ध्यानशतक, गाथा 3, (च) लोकप्रकाश 301421-422 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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