________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति] [545 वैयावृत्त्य के 10 प्रकार-वैयावृत्त्य के योग्य पात्रों के आधार पर स्थानांग में इसके 10 प्रकार बताए हैं-(१) प्राचार्य-वैयावृत्त्य, (2) उपाध्याय-वैयावृत्त्य, (3) तपस्वी-वैयावृत्त्य, (4) स्थविर वैयावृत्त्य, (5) ग्लान-वैयावृत्त्य, (6) शैक्ष (नवदीक्षित)—वैयावृत्त्य, (7) कुल-वैयावृत्त्य, (8) गण-वैयावृत्त्य, (9) संघ-वैयावृत्त्य, और (10) सार्मिक-वैयावृत्त्य / __ मूलाराधना में वैयावृत्त्य के योग्य 10 पात्र ये बताए हैं-गुणाधिक, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल साधु, गण, कुल, चतुर्विध संघ और समनोज्ञ पर आपत्ति आने पर वैयावृत्य करना कर्तव्य है।' 4. स्वाध्याय : स्वरूप एवं प्रकार 34. वायणा पुच्छणा चेव तहेव परियट्टणा / अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भवे // [34] वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, यह पांच प्रकार का स्वाध्यायतप है। विवेचन--स्वाध्याय के लक्षण-(१) स्व अपनी आत्मा का हित करने वाला, अध्यायअध्ययन करना स्वाध्याय है, अथवा (2) पालस्य त्याग कर ज्ञानाराधना करना स्वाध्याय-तप है। (3) तत्त्वज्ञान का पठन, पाठन और स्मरण करना आदि स्वाध्याय है। (4) पूजा-प्रतिष्ठादि से निरपेक्ष होकर केवल कर्ममल-शुद्धि के लिए जो मुनि जिनप्रणीत शास्त्रों को भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ सुखकारी है।' __ स्वाध्याय के प्रकार-पांच हैं--(१)वाचना (स्वयं पढ़ना या योग्य व्यक्ति को वाचना देना या व्याख्यान करना), (2) पृच्छना—(शास्त्रों के अर्थ को बार-बार पूछना), (3) परिवर्तना-(पढ़े हुए ग्रन्थ का बार-बार पाठ करना), (4) अनुपेक्षा--(परिचित या पठित शास्त्रपाठ का मर्म समझने के लिए मनन-चिन्तन-पर्यालोचन करना) और (5) धर्मकथा-(पठित या पर्यालोचित शास्त्र का धर्मोपदेश करना अथवा त्रिषष्टिशलाका पुरुषों का चरित्र पढ़ना) / तत्त्वार्थसूत्र में परिवर्तना के बदले उसी अर्थ का द्योतक 'आम्नाय' शब्द है / ' 1. (क) स्थानांग 10 / 733 (ख) भगवती. 257801 (ग) प्रोपपातिक. मू. 20 (घ) तत्त्वार्थ. 9 / 24 (ड) 'गुणधोए उवज्झाए तवस्सि सिस्से य दुम्बले। ___ साहुगणे कुले संचे समणुण्णे य चापदि // ' --मूलाराधना 390 2. (क) 'स्वस्मै हितोऽध्यायः स्वाध्यायः / ' --चारिश्रसार 15215 (ख) 'जानभावनाऽलस्यत्यागः स्वाध्याय: 1' –सर्वार्थसिद्धि 9 / 20 (ग) 'स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च / ' -चारित्रसार 4413 (घ) 'पूयादिसु णिरवेक्खो जिणसत्थं जो पढेइ भत्तिजुनो। ___ कम्ममलसोहण? सुयलाहो सुहयरो तस्स / ' –कात्तिकेयानुप्रेक्षा 462 3. (क) उत्तरा. अ. 30 (ख) वाचना-पृच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः। --तत्त्वार्थ. 9 / 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org