________________ 544] [उत्तराध्ययनसूत्र विनय के प्रकार--यद्यपि प्रस्तुत गाथा में विनय के प्रकारों का उल्लेख नहीं है / तथापि तत्वार्थसूत्र में चार (ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार) विनय एवं प्रौपपातिकसूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वचन, काय और लोकोपचार, यो 7 विनयों का उल्लेख है।' 3. वैयावत्य का स्वरूप 33. आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे / ___ आसेवणं जहाथामं वेयावच्चं तमाहियं // _[33] प्राचार्य आदि से सम्बन्धित दस प्रकार के वैयावृत्त्य का यथाशक्ति प्रासेवन करने को वैयावृत्त्य कहा है। विवेचन-वैयावृत्त्य के लक्षण-संयमी या गुणी पुरुषों के दुःख में आ पड़ने पर गुणानुरागपूर्वक निर्दोष (कल्पनीय) विधि से उनका दुःख दूर करना, अथवा शरीरचेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उनकी उपासना करना, व्याधि, परीषह आदि का उपद्रव होने पर औषध, ग्राहारपान, उपाश्रय आदि देकर उपकार करना, जो मुनि उपसर्ग-पीड़ित हो तथा वृद्धावस्था के कारण जिसकी काया क्षीण हो गई हो, उसका निरपेक्ष होकर उपकार करना वैयावृत्त्यतप है। रोगादि से व्यापृत (व्याकुल) होने पर आपत्ति के समय उसके निवारणार्थ जो किया जाता है, अथवा शरीरपीड़ा अथवा दुष्परिणामों को दूर करने के लिए औषध आदि से या अन्य प्रकार से जो उपकार किया जाता है, वह वैयावृत्त्य नामक तप है। वैयावृत्य का प्रयोजन एवं परिणाम-भगवती आराधना में वैयावृत्य के 18 गुण बताए हैंगुणग्रहण के परिणाम, श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, पात्रता की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्व आदि का पुनः सन्धान, तप, पूजा, तीर्थ-अव्युच्छित्ति, समाधि, जिनाज्ञा, संयम, सहाय, दान, निविचिकित्सा, प्रवचनप्रभावना / पुण्यसंचय तथा कर्तव्य का निर्वाह / / सर्वार्थसिद्धि में बताया गया है कि वैयावृत्त्य का प्रयोजन है--समाधि की प्राप्ति, विचिकित्सा का अभाव तथा प्रवचनवात्सल्य की अभिव्यक्ति / सम्यक्त्वी के लिए वयावृत्त्य निर्जरा का निमित्त है। इसी शास्त्र में वैयावृत्त्य से तीर्थकरत्त्व की प्राप्ति की संभावना बताई गई है। 1. (क) ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः। -तत्त्वार्थ. 9 / 23 (ख) औपपातिक. मू. 20 2. (क) रत्नकरण्डश्रावकाचार 112, (ख) गुणवददुःखोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं यावृत्त्याम् –सर्वार्थसिद्धि 6 / 24, (ग) (रोगादिना) व्यापृते, व्यापदि वा यत्क्रियते तद् वैयावृत्त्यम् / -धवला 8 / 3, 41; 1315, 4 (घ) 'जो उवयरदि जदीणं उवसग्गजराइ खोणकायाणं / प्रयादिसु णिरवेक्खं वेज्जावच्चं तवो तस्स // ' कात्तिकेयानुप्रेक्षा, 459 3. (क) भगवती आराधना मूल 309-310 (ख) सर्वार्थ सिद्धि 9 / 24 / 442 (ग) धर्मपरीक्षा 719 (घ) धवला 88.10 : 'ताए एवं विहाए एक्काए वेयावच्चजोगजुत्तदाए वि। (ङ) उत्तरा. अ. 29 सू. 44 : वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्म निबंधड। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org