________________ 538] [उत्तराध्ययनसून विवेचन रसपरित्याग के विशिष्ट फलितार्थ प्रस्तुत गाथा से रसपरित्याग के दो अर्थ फलित होते हैं-(१) दूध, दही, घी आदि रसों का त्याग और (2) प्रणीत (स्निग्ध) पान-भोजन का त्याग / प्रौपपातिक सूत्र में रसपरित्याग के विभिन्न प्रकार बतलाए हैं--(१) निविकृति (विकृति-विगई का त्याग), (2) प्रणीतरसत्याग, (3) प्राचामाम्ल (अम्लरस मिश्रित भात आदि का आहार), (4) प्रायामसिक्थ भोजन (ोसामण मिले हुए अन्नकण का भोजन), (5) अरस (हींग से असंस्कृत) आहार, (6) विरस (पुराने धान्य का) आहार, (7) अन्त्य (बालोर आदि तुच्छ धान्य का) आहार, (8) प्रान्त्य (शीतल) आहार एवं (6) रूक्ष पाहार / ' विकृति : स्वरूप और प्रकार-जिन वस्तुओं से जिह्वा और मन, दोनों विकृत होते हैं, ये स्वादलोलुप या विषयलोलुप बनते हैं, उन्हें 'विकृति' कहते हैं। विकृतियाँ सामान्यतया 5 मानी जाती हैं-दूध, दही, घी, तेल एवं गुड़ (मीठा या मिठाइयाँ)। ये चार महाविकृतियाँ मानी जाती हैं-मधू, नवनीत, मांस और मद्य। इनमें मद्य और मांस दो तो सर्वथा त्याज्य हैं। पूर्वोक्त 5 में से किसी एक का या इन सबका त्याग करना रसपरित्याग है / पं. आशाधरजी ने विकृति के 4 प्रकार बताए हैं--(१) गोरसविकृति-दूध, दही, घी, मक्खन आदि, (2) इक्षुरसविकृति-गुड़, चीनी, मिठाई आदि, (3) फलरसविकृति-अंगूर, आम ग्रादि फलों के रस, और (4) धान्यरसविकृति तेल, मांड, पूड़े, हरा शाक, दाल आदि / रसपरित्याग करने वाला शाक, व्यंजन, तली हुई चीजों, नमक आदि मसालों को इच्छानुसार वजित करता है / 2 रसपरित्याग का प्रयोजन और परिणाम-इस तप का प्रयोजन स्वादविजय है। इस तप के फलस्वरूप साधक को तीन लाभ होते हैं--(१) संतोष की भावना, (2) ब्रह्मचर्य-साधना एवं (3) सांसारिक पदार्थों से विरक्ति।3 5. कायक्लेशतप 27. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा / उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं // [27] प्रात्मा के लिए सुखावह वीरासन आदि उग्र प्रासनों का जो अभ्यास किया जाता है, उसे कायक्लेश तप कहा गया है / विवेचन-कायक्लेश का लक्षण-शरीर को जानबूझ कर स्वेच्छा से विना ग्लानि के कठिन 1. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, (ख) औषपातिकवृत्ति, सूत्र 19 2. (क) सागारधर्मामृत टीका 135 (ख) मूलाराधना 31213 (म) स्थानांग. स्थान 4 / 1 / 274 (घ) वही, 96674 (ङ) सागारधर्मामृत 5 / 35 टीका (च) मूलाराधना 31215 3. संतोषो भावितः सम्यग ब्रह्मचर्य प्रपालितम् / दशितं स्वस्य वैराग्यं, कुर्वाणेन रसोज्झनम् / / - मूलाराधना (अमित गति) 3.217 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org