________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति] [539 तप की अग्नि में झोंकना एवं शरीर को सुख मिले, ऐसी भावना को त्यागना कायक्लेश है। प्रस्तुत गाथा में कायक्लेश का अर्थ किया गया है-बीरासन आदि कठोर प्रासनों का अभ्यास करना / स्थानांगसूत्र में कायक्लेश में 7 बातें निर्दिष्ट हैं—(१) स्थान कायोत्सर्ग, (2) उकडू-आसन, (3) प्रतिमा-ग्रासन, (4) वीरासन, (5) निषद्या, (6) दण्डायत-ग्रासन और (7) लगण्ड-शयनासन / ग्रौपपातिकसूत्र में स्थानांगसूत्रोक्त 5 प्रकार तो ये ही हैं, शेष 5 प्रकार इस प्रकार हैं-(६) प्रातापना, (7) वस्त्रत्याग, (8) अकण्डूयन (अंग न खुजाना), (6) अनिष्ठीवन (थूकना नहीं) और (10) सर्वगात्रपारकर्म-विभूषावर्जन / भूलाराधना और सर्वार्थसिद्धि के अनुसार खड़ा रहना, एक करवट से मृत की तरह सोना, वीरासनादि से बैठना इत्यादि तथा अातापन योग (ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत ऋतु में खुले स्थान में या नदीतट पर तथा वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे सोना-बैठना), वृक्ष के मूल में निवास, निरावरण शयन और नाना प्रकार की प्रतिमाएं और प्रासन इत्यादि करना कायक्लेश हैं।' कायक्लेश को सिद्धि के लिए-अनगारधर्मामृत में छह उपायों का निर्देश किया गया है(१) अयन (सूर्य को गति के अनुसार गमन करना), शयन (लगड, उत्तान, अवाक्, एकपार्श्व, अभ्रावकाश आदि अनेक प्रकार से सोना), आसन (समपर्यंक, असमपर्यक, गोदोह, मकरमुख, गोशय्या, वीरासन, दण्डासन आदि), स्थान (साधार, सविचार, ससन्निरोध, विसृष्टांग, समपाद, प्रसारितबाहू आदि अनेक प्रकार के कायोत्सर्ग), अवग्रह (थूकना, खांसना, छोंक, जंभाई, खाज, कांटा चुभना, पत्थर लगना आदि बाधाओं को जीतना, खिन्न न होना, केशलोच करना, अस्नान, अदन्तधावन आदि अनेक प्रकार के अवग्रह) और योग (प्रातापनयोग, वृक्षमूलयोग, शोतयोग प्रादि)। ___कायक्लेश तप का प्रयोजन यह देहदुःख को सहने के लिए, सुखविधयक प्रासक्ति को कम करने के लिए और प्रवचन को प्रभावना करने के लिए किया जाता है। शोत, वात और आतप के द्वारा, प्राचाम्ल, निविकृति, एकलस्थान, उपवास, बेला, तेला आदि के द्वारा, क्षुधा, तृषा आदि बाधाओं द्वारा और विसंस्थुल आसनों द्वारा ध्यान का अभ्यास करने के लिए यह तप किया जाता है। जिसने इन बाधाओं का अभ्यास नहीं किया है तथा जो इन मारणान्तिक कष्टों से खिन्न हो जाता है, वह ध्यान के योग्य नहीं बन सकता / सम्यग्दर्शनयुक्त इस तप से अन्तरंग बल की वृद्धि और कर्मों की अनन्त निर्जरा होती है। यह मोक्ष का प्रधान कारण है / मुमुक्षुत्रों तथा प्रशान्त तपस्वियों 1. (क) जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष भा, 2, पृ. 46 (ख) भगवती पाराधना वि. 86.32 / 18 कायसुखाभिलापत्यजनं कायक्लेशः। (ग) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. 2 (घ) स्थानांग, स्थान 7 / 554 (ड) औपपातिक. सू. 19 (च) मूलाराधना मू. 356 (छ) सर्वार्थसिद्धि 9 / 19 / 438 / 'आतपस्थानं वृक्षमूलनिवासो, निरावरणशयनं बहविधप्रतिमास्थानमित्येवमादिः कायश्लेशः / ' 2. ऊध्र्वार्काद्ययनः शवादिशयनज्रासनाद्यासनः। स्थानरेकपदाग्रगामिभिरनिष्ठीवाग्रमावग्रहः // योगश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत्तनोः / कायक्लेशमिदं तयोऽत्युपमती सध्यानसिद्धयं भजेत् / -भगवती पाराधना मू. 222-227 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org