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________________ तोसबों अध्ययन : तपोमार्गगति] [537 सात प्रकार की एषणाएँ-सात प्रकार की एषणाएँ सप्तविध प्रतिमाएँ (प्रतिज्ञाएँ) हैं। प्रत्येक प्रतिमा एक प्रकार से तप का रूप है। क्योंकि उसी में सन्तोष करना होता है। ये सात एषणाएँ इस प्रकार हैं-(१) संसृष्टा-खाद्य वस्तु से लिप्त हाथ या बर्तन से भिक्षा लेना / (2) असंसृष्टा-अलिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना। (3) उद्धृता-गहस्थ द्वारा स्वप्रयोजनवश पकाने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हा आहार लेना। (4) अल्पलेपा—अल्पलेप वाली चना, चिउड़ा आदि रूखी वस्तु लेना। (5) अवगृहीता खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना। (6) प्रगृहीता-परोसने के लिए कड़छो या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना। (7) उशितधर्मा--अमनोज्ञ एवं त्याज्य (परिष्ठापनयोग्य) भोजन लेना। भिक्षाचर्या : यत्तिसंक्षेप एवं वत्तिसंख्यान-भिक्षाचर्या तप केवल साधु-साध्वियों के लिए है, गृहस्थों के लिए इसका औचित्य नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र में इसका नाम 'वृत्तिपरिसंख्यान' मिलता है, जिसका अर्थ किया गया है--वृत्ति अर्थात् -अाशा (लालसा) की निवृत्ति के लिए भोज्य वस्तुओं (द्रव्यों) की गणना करना कि मैं आज इतने द्रव्य से अधिक नहीं लगाऊँगा-यानो सेवन नहीं करूंगा, या मैं पाजे एक वस्तु का ही भोजन या अमुक पानमात्र ही करूंगा, इत्यादि प्रकार के संकल्प करना बृत्तिपरिसंख्यान है। वृत्तिपरिख्यान तप का अर्थ भगवती आराधना में किया गया है-पाहारसंज्ञा पर विजय प्राप्त करना। विकल्प से वृत्तिसंक्षेप या वृत्तिपरिसंख्यान का अर्थ-भिक्षावृत्ति की पूर्वोक्त अष्टविध प्रतिमाएं ग्रहण करना, ऐसा किया गया है। अथवा विविध प्रकार के अभिग्रहों का ग्रहण भो वृत्तिपरिसंख्यान है। इस प्रकार से भिक्षावृत्ति को विविध अभिग्रहों द्वारा संक्षिप्त करना वत्तिसंक्षेप है। मूलाराधना में संसृष्ट, फलिहा, परिखा आदि वृत्तिसंक्षेप के 8 प्रकार अन्य रूप में मिलते हैं तथा प्रौपपातिकसूत्र में वृत्तिसंक्षेप के 'द्रव्याभिग्रहचरक' से लेकर 'संख्यादत्तिक' तक 30 प्रकार बतलाए गए हैं / इन सब का अर्थ भिक्षापरक है / 4. रसपरित्यागतप : एक अनुचिन्तन 26. खोर-दहि-सप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं / परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं / / |26] दूध, दही, घी आदि प्रगीत (स्निग्ध एवं पौष्टिक) पान, भोजन तथा रसों का त्याग करना रसपरित्यागतप है / 1. (क) प्रवचनसारोद्वार गाथा 647 से 743 तक (ख) स्थानांग, 7 / 545 वृत्ति, पत्र 586, समवायांग, समवाय 6 (ग) मूलाराधना, विजयोदयावृत्ति 31220 2. (क) सर्वार्थसिद्धि 9 / 19 / 43818 (ख) भगवती प्राराधना वि.६३२११८ (ग) धवला 1315 (घ) भगवती आराधना मूल, 218-221 3. (क) मुलाराधना 31220 विजयोदया (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 607 (ग) मूलाराधना 31201 (घ) औपपातिकवृत्ति, सूत्र 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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