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________________ [उत्तराध्ययनसूत्र प्रादि / वाट चारों ओर कांटों या तारों की बाड़ लगाया हुअा स्थान, बाड़ा या पाड़ा (मोहल्ला)। रथ्या—गली।' क्षेत्र-अवमौदर्य : स्वरूप और प्रकार–भिक्षाचर्या की दृष्टि से क्षेत्र की सीमा कम कर लेना क्षेत्र-अवमौदर्य है। इसके लिए यहाँ गा. 16 से 18 तक में ग्राम से लेकर गृह तक 25 प्रकार के तथा ऐसे ही क्षेत्रों की निर्धारित सीमा में कमी करना बताया है। गाथा 16 में दूसरे प्रकार से क्षेत्र-अवमौदर्य बताया है, वह भिक्षाचरी के क्षेत्र में कमी करने के अर्थ में है। इसके भेद हैं-(२)पेटा जैसे ....पेटी (पेटिका) चौकोर होती है... वैसे ही बीच के घरों को छोड़ कर चारों श्रेणियों में भिक्षाचरी करना / (2) अर्धपेटा-केवल दो श्रेणियों से भिक्षा लेना, (3) गोमूत्रिका-चलते बैल के मूत्र की रेखा की तरह वक्र अर्थात् टेढ़े-मेढ़े भ्रमण करके भिक्षाटन करना / (4) पतंगवीथिका--जैसे पतंग उड़ता हुअा बीच में कहीं-कहीं चमकता है, वैसे ही बीच-बीच में घरों को छोड़ते हुए भिक्षाचरी करना। (5) शम्बूकावर्ती शंख के प्रावों की तरह गाँव के बाहरी भाग से भिक्षा लेते हुए अन्दर में जाना, अथवा गाँव के अन्दर से भिक्षा लेते हुए बाहर की ओर जाना। इस प्रकार ये दो प्रकार हैं। (6) आयतं गत्वा-प्रत्यागता-गाँव की सोधी-सरल गली में अन्तिम घर तक जाकर फिर वापिस लौटते हुए भिक्षाचर्या करना / इसके भी दो भेद हैं-(१) जाते समय गली की एक पंक्ति से और पाते समय दूसरी पंक्ति से भिक्षा ग्रहण करना, अथवा (2) एक ही पंक्ति से भिक्षा लेना, दूसरी पंक्ति से नहीं।' ___ इस प्रकार के संकल्पों (प्रतिमानों) से ऊनोदरी होती है, अतएव इन्हें क्षेत्र अवमौदर्य में परिगणित किया गया है। 3. भिक्षाचर्यातप 25. अटविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया // [25] आठ प्रकार के गोचराग्र, सात प्रकार की एषणाएँ तथा अन्य अनेक प्रकार के अभिग्रह-भिक्षचर्यातप है। विवेचन–अष्टविध गोचराग्र : स्वरूप एवं प्रकार-आठ प्रकार का अग्र-अर्थात् (अकल्प्यपिण्ड का त्याग कर देने से) प्रधान; जो गोचर अर्थात् -(उच्च-नीच-मध्यम समस्त कुलों (घरों) में सामान्य रूप से) गाय की तरह भ्रमण (चर्या) करना अष्टविध गोचराग्र कहलाता है / दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि प्रधान गोचरी के 8 भेद हैं। इन पाठ प्रकार के गोचराग्र में पूर्वोक्त पेटा, अर्धपेटा आदि छह प्रकार और शम्बूकावर्ता तथा 'ग्रायतं गत्वा प्रत्यागता' के वैकल्पिक दो भेद मिलाने से कुल आठ भेद गोचराग्र के होते हैं। 1. उत्तरा. प्रियशिनीटीका भा. 4, पृ. 393 2. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पण पृ. 453-454 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 605-606 (ग) प्रवचनसारोद्धार गा. 747-748 (घ) स्थानांग 63514 वृत्ति, पत्र 347 3. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 270 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 605 (ग) प्रवचनसारोद्धार 748-749 मा. 745 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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