________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति] [535 [24] द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो पर्याय (भाव) कहे गए हैं, उन सब से भी अवमचर्या (अवमौदर्य तप) करने वाला भिक्षु पर्यवचरक कहलाता है। विवेचन--अवमौदर्य : सामान्य स्वरूप-अवमौदर्य का प्रचलित नाम 'ऊनोदरी' है / इसलिए सामान्यतया इसका अर्थ होता है--उदर में भूख से कम पाहार डालना / किन्तु प्रस्तुत में इसके भावार्थ को लेकर द्रव्यतः--(उपकरण, वस्त्र या भक्तपान की आवश्यक मात्रा में कमी करना), क्षेत्रतः, कालतः एवं भावत: तथा पर्यायत: अवमौदर्य की अपेक्षा से इसका व्यापक एवं विशिष्ट अर्थ किया है / निष्कर्ष यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं पर्याय की दृष्टि से आहारादि सब में कमी करना अवमौदर्य या ऊनोदरी तप है अवमौदर्य के प्रकार-प्रस्तुत 11 गाथाओं (गा. 14 से 24 तक) में अवमौदर्य के पांच प्रकार बताए हैं-(१) द्रव्य-अवमौदर्य, (2) क्षेत्र-अवमौदर्य, (3) काल-अवमौदर्य, (4) भावअवमौदर्य एवं (5) पर्याय-अवमौदर्य / औषपातिकसूत्र में इसके मुख्य दो भेद बताए हैं-द्रव्यतः अवमौदर्य और (2) भावतः अवमौदर्य / फिर द्रव्यतः अवमौदर्य के 2 भेद किये हैं-(१) उपकरणअवमौदर्य, (2) भक्त-पान-अवमौदर्य / फिर भक्त-पान-अवमौदर्य के 5 उपभेद किये गए हैं -(1) एक कवल से पाठ कवल तक खाने पर अल्पाहार होता है। (2) पाठ से बारहमास तक खाने पर अपार्द्ध अवमौदर्य होता है, (3) तेरह से सोलह कवल तक खाने पर अर्द्ध अवमौदर्य है। (4) सत्रह से चौबीस कवल तक खाने पर पौन-अवमौदर्य तथा (5) पच्चीस से तक इकतीस कौर लेने पर किचित् अवमौदर्य होता है। अनोदरी तप का कितना सुन्दर स्वरूप बताया गया है। वर्तमान युग में इस तप की बड़ी अावश्यकता है। इसके फल हैं-निद्राविजय, समाधि, स्वाध्याय, परम-संयम एवं इन्द्रियविजय आदि। क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह आदि को घटाना भावतः अवमौदर्य है। कुछ विशिष्ट शब्दों के विशेषार्थ--ग्राम---बुद्धि या गुणों का जहाँ ग्रास (ह्रास) हो / नगर-- जहाँ कर न लगता हो। निगम--व्यापार की मंडी। प्राकर-सोने आदि की खान / पल्ली(ढाणी) वन में साधारण लोगों या चोरों की बस्ती। खेट-खेड़ा, धूल के परकोटे वाला नाम / कर्बट--कस्बा (छोटा नगर)। द्रोणमुख बंदरगाह. अथवा आवागमन के जल-स्थल उभयमार्ग वाली बस्ती / पत्तन-जहाँ सभी ओर से लोग पाकर रहते हों। मडंब-जिसके निकट ढाई तक कोई ग्राम न हो / सम्बाध-जहाँ ब्राह्मणादि चारों वर्गों की प्रचुर संख्या में बस्ती हो / विहार-मठ या देवमन्दिर / सन्निवेश-पड़ाव या मोहल्ला या यात्री-विश्रामस्थान / समाज-सभा या परिषद् / स्थली-ऊँचे टीले वाला या ऊँचा स्थान / घोष--वालों की बस्ती। सार्थ—सार्थवाहों का चलताफिरता पड़ाव / संवर्त भयग्रस्त एवं विलित लोगों की बस्ती / कोट्ट-किला, कोट या प्राकार 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 267 2. (क) औपपातिक. सूत्र 19 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 4, पृ. 392 (ग) मूलाराधना 31211 (अमितगति) पृ. 428 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org