________________ 534] [उत्तराध्ययनसूत्रे 18. वाडसु व रत्थासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं / कप्पइ उ एवमाई एवं खेत्तेण ऊ भवे // [16-17-18] ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन, मण्डप, सम्बाध-आश्रमपद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिविर (छावनी), सार्थ, संवर्त और कोट, वाट (बाड़ा या पाड़ा), रथ्या (गली) और घर, इन क्षेत्रों में, अथवा इसी प्रकार के दूसरे क्षेत्रों में (पूर्व) निर्धारित क्षेत्र-प्रमाण के अनुसार (भिक्षा के लिए जाना), इस प्रकार का कल्प, क्षेत्र से अवमौदर्य (ऊनोदरी) तप है / 19. पेडा य अद्धपेडा गोमुत्ति पयंगवीहिया चेव / सम्बुक्कावट्टाऽऽययगन्तु पच्चागया छट्ठा / / [16] अथवा (प्रकारान्तर से) पेटा, अर्द्ध पेटा, गोमूत्रिका, पतंगवीथिका, शम्बूकावर्ता और आयतगत्वा-प्रत्यागता यह छह प्रकार का क्षेत्र से ऊनोदरी तप है। 20. दिवसस्स पोरुसीणं चउण्हं पि उ जत्तिओ भवे कालो। एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेयन्वो॥ [20] दिन के चार पहरों (पौरुषियों) में भिक्षा का जितना नियत काल हो, उसी में (तदनुसार) भिक्षा के लिए जाना, (भिक्षाचर्या करने वाले मुनि के काल से अवमौदर्य ( ऊनोदरी) तप समझना चाहिए। 21. अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाइ घासमेसन्तो। चउभागणाए वा एवं कालेण ऊ भवे // [21] अथवा तीसरी पौरुषी (प्रहर) में कुछ भाग न्यून अथवा चतुर्थ भाग प्रादि न्यून (प्रहर) में भिक्षा की एषणा करना, इस प्रकार काल की अपेक्षा से ऊनोदरी तप होता है। 22. इत्थी वा पुरिसो वा अलंकिओ वाऽणलंकिओ वा वि। अन्नयरवयत्थो वा अन्नयरेणं व वत्थेणं / / 23. अन्नेण विसेसेणं वण्णेणं भावमणुमुयन्ते उ। एवं चरमाणो खलु भावोमाणं मुणेयन्वो // [22-23] स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अनलंकृत; या अमुक आयु वाले अथवा अमुक वस्त्र वाले ; अमुक विशिष्ट वर्ण एवं भाव से युक्त दाता से भिक्षा ग्रहण करू गा; अन्यथा नहीं, इस प्रकार के अभिग्रहपूर्वक (भिक्षा) चर्या करने वाले भिक्षु के भाव से अवमौदर्य (ऊनोदरी) तप होता 24. दवे खेत्ते काले भावम्मि य प्राहिया उजे भावा / एएहि प्रोमचरओ पज्जवचरओ भये भिक्खू // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org