________________ 530] [उत्तराध्ययनसूत्र बाह्यतप के सुफल-(१) इन्द्रियदमन, (2) समाधियोग-स्पर्श, (3) वीर्यशक्ति का उपयोग, (4) जीवनसम्बन्धी तष्णा का नाश, (5) संक्लेशरहित कष्टसहिष्णता का अभ्यास, (6) देह, रस एवं सुख के प्रति अप्रतिवद्धता, (7) कषायनिग्रह, (8) भोगों के प्रति औदासीन्य, (8) समाधिमरण का स्थिर अभ्यास, (10) अनायास आत्मदमन, (11) आहार के प्रति अनाकांक्षा का अभ्यास, (12) अनासक्ति-वृद्धि, (13) लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में समता, (14) ब्रह्मचर्यसिद्धि, (15) निद्राविजय, (16) त्यागदृढता, (17) विशिष्ट त्याग का विकास, (18) दर्पनाश, (16) आत्मा कुल, गण, शासन की प्रभावना, (20) आलस्यत्याग, (21) कर्मविशुद्धि, (22) मिथ्यादृष्टियों में भी सौम्यभाव, (23) मुक्तिमार्ग-प्रकाशन, (24) जिनाज्ञाराधना, (25) देहलाघव, (26) शरीर के प्रति अनासक्ति, (27) रागादि का उपशम, (28) ग्राहार परिमित होने से शरीर में नीरोगता, (26) सन्तोषवृद्धि, (30) आहारादि-प्रासक्ति-क्षीणता / ' __ बाह्य तप के प्रयोजन-तत्त्वार्थसूत्र श्रुतसागरीय वृत्ति में बाह्य तप के विभिन्न प्रयोजन बताए हैं / जैसे कि (1) अनशन के प्रयोजन-रोगनाश, संयमदृढता, कर्मफल-विशोधन, सध्यानप्राप्ति और शास्त्राभ्यास में रुचि। (2) ऊनोदरिका के प्रयोजन-वात-पित्त-कफादिजनित दोषोपशमन, ज्ञान-ध्यानादि की प्राप्ति, संयम में सावधानी, (3) वृत्तिसंक्षेप-भोज्य वस्तुयों की इच्छा का निरोध, भोजनचिन्ता-नियन्त्रण / (4) रसपरित्याग-इन्द्रियनिग्रह, निद्राविजय और स्वाध्यायध्यानरुचि / (5) विविक्तशय्यासन--ब्रह्मचर्य सिद्धि, स्वाध्याय-ध्यानसिद्धि और बाधाओं से मुक्ति, (6) कायक्लेश--शरीरसुख-वाञ्छा से मुक्ति, कष्टसहिष्णुता का स्थिर स्वभाव, धर्मप्रभावना / / मणइच्छ्यि -चित्तत्थी--बृहद्वृत्ति के अनुसार - (1) मनोवाञ्छित विचित्र प्रकार का फल देने वाला, (2) विचित्र स्वर्गापवर्गादि के या तेजोलेश्यादि के प्रयोजन वाला मन को अभीष्ट तप 13 ___ अनशन : प्रकार, स्वरूप-अनशन का अर्थ है-आहारत्याग / वह मुख्यतया दो प्रकार का है--इत्वरिक और आमरणकाल (या वत्कथिक)। इत्वरिक अनशन तप देश, काल, परिस्थिति आदि को ध्यान में रखते हुए शक्ति के अनुसार अमुक समय-विशेष की सीमा बाँध कर किया जाता है / भगवान महावीर के शासन में दो घड़ी से लेकर छह मास तक की सीमा है। औपपातिकसूत्र में इसके चौदह भेद बताए गए हैं१. चतुर्थभक्त–एक उपवास 8. अर्धमासिकभक्त-१५ दिन का उपवास 2. षष्ठभक्त-दो दिन का उप है. मासिकभक्त-मासखमण-१ मास का 3. अष्टमभक्त-तीन दिन का उप उपवास 10. द्वैमासिकभक्त-दो मास का उपवास 4. दशमभक्त-चार दिन का उपवास 5. द्वादशभक्त--पांच दिन का उपवास (पंचौला) 11. त्रैमासिकभक्त-तीन मास का उपवास 6. चतुर्दशभक्त-छह दिन का उपवास 12. चातुर्मासिकभक्त–४ मास का तप 13. पाञ्चमासिकभक्त-५ मास का उपवास 7. षोडशभक्त-सात दिन का उपवास 14. पाण्मासिकतप-६ मास का उपवास 1. मूलाराधना 3 / 237-244 2. तत्त्वार्थ. श्रुतसागरीय वृत्ति 920 3. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 601 (ख) उत्तरा, गुजराती भाषान्तर भा, 2, पत्र 265 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org