________________ 528] [उत्तराध्ययनसूत्र आभ्यन्तर तप : स्वरूप और प्रकार-जिनमें बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रहे, जो अन्तःकरण के व्यापार से होते हैं, जिनमें अन्तरंग परिणामों की मुख्यता रहती हो, जो स्वसंवेद्य हो, जिनसे मन का नियमन होता हो, जो विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा ही तप रूप में स्वीकृत होते हैं और जो मुक्ति के अन्तरंग कारण हों, वे प्राभ्यन्तर तप हैं / ग्राभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है, जिसका निरूपण आगे किया जायेगा।' बाह्य और आभ्यन्तर तप का समन्वय-अनशनादि तपश्चरण से शरीर और इन्द्रियाँ उद्रिक्त नहीं हो सकतीं, अपितु कृश हो जाती हैं। दूसरे, इनके निमित्त से सम्पूर्ण अशुभकर्म अग्नि के द्वारा इन्धन की तरह भस्मसात हो जाते हैं, तीसरे, बाह्य तप प्रायश्चित्त आदि प्राभ्यन्तर तप की वद्धि में कारण हैं / बाह्य तपों के द्वारा शरीर कृश हो जाने से इन्द्रियों का मर्दन (दमन) हो जाता है / इन्द्रियदमन हो जाने पर मन अपना पराक्रम कैसे प्रकट कर सकता है ? कितना ही बलवान् योद्धा हो, प्रतियोद्धा द्वारा अपना घोड़ा मारा जाने पर अवश्य ही हतोत्साह व निर्बल हो जाता है / प्राभ्यन्तर परिणामशुद्धि का चिह्न अनशनादि बाह्यतप है। बाह्य साधन (तप) होते ही अन्तरंगतप की वृद्धि होती है। रागादि के त्याग के साथ ही चारों प्रकार के आहार के त्याग को अनशन माना है / वस्तुतः बाह्य तप आभ्यन्तर तप के लिए है / अतः प्राभ्यन्तर तप प्रधान है। वह प्राभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणामों से युक्त होता है। इसके बिना अकेला बाह्य तप पूर्ण कर्मनिर्जरा करने में असमर्थ है। 1. (क) बाह्य-बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् प्रायो मक्त्यवाप्ति-बहिरंगत्वाच्च / प्राभ्यन्तरं तद्विपरीतं, यदि वा लोक प्रतीतत्वात् कुतीथिकैश्च स्वाभिप्रायेणासेव्यमानत्वाद बाह्यम, तदितरत्वादाभ्यन्तरम् / अन्ये त्वाः प्रायेणान्तःकरण यापाररूपमेवाभ्यन्तरम् / बाह्य त्वन्यथेति / --बृहद्वत्ति, पत्र 600 (ख) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् / मनोनियमनार्थत्वादाभ्यन्तरत्वम् / ___ --सर्वार्थ सिद्धि 9 / 19-20 (ग) अनशनादि हि तीर्थं गहस्र्थश्च क्रियते, ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम् / --राजवा. 9 / 19 / 19 (घ) बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्वसंवेद्यत्वतः परैः। अनध्यक्षातप: प्रायश्चित्ताद्याभ्यन्तरं भवेत् // --अन गारधर्मामृत 33 श्लो. (ङ) सो णाम बाहिरतवो, जेण मणो दुक्कडं ण उठेदि / जेण य सड्ढा जायदि, जेण य जोगा ण हायति // --भगवती पाराधना, गा. 236 2. (क) देहाक्षतपनात्कर्म दहनादान्तरस्य च / तपसो वृद्धि हेतुत्वात् स्यात्तपोऽनशनादिकम् / / बाह्य स्तपोभिः कर्शनादक्षमर्दने / / छिन्नबाहो भट इव, विक्रामति कियन्मनः ? –अनगारधर्मामृत 15-8 (ख) लिगं च होदि आम्भंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी। -भगवती पाराधना 1350 गा. (ग) ण च चउम्विह-आहारपरिच्चागो चेव अणसणं / रामादिहिं सह तच्चागस्त अणसणभावमभवगमादो।। --धवला 1335 (घ) यद्धि यदर्थ तत्प्रधानमिति प्रधानताऽभ्यन्तरतपसः / तच्च शुभशुद्धपरिणामात्मकं तेन विना न निर्जरायै बाह्यमलम् // --भगवती आराधना वि. 1348 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org