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________________ तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति] [527 विवेचन-तप : निर्वचन और पूर्वकर्मक्षय--तप का निर्वचन दो प्रकार से किया गया है / (1) जो तपाता है, अर्थात कर्मों को जलाता है, वह तप है। (2) जिससे रसादि धातु अथवा कर्म तपाए जाते हैं अथवा कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है / प्रस्तुत दूसरी, तीसरी गाथा से स्पष्ट हो जाता है कि प्राणिवधादि से विरत, पांचसमिति-त्रिगुप्ति से युक्त. चार कषाय, तीन शल्य एवं तीन प्रकार के गौरव से रहित होकर साधक जब अनाव हो जाता है, अर्थात् नये कर्मों के आगमन को रोक देता है, तभी वह पूर्वसंचित (पहले बंधे हुए) पाप कर्मो को तप के द्वारा क्षीण करने में समर्थ होता है / यही तपोमार्ग है, पुरातन कर्मों को क्षय करने का। उदाहरणार्थ-जैसे किसी महासरोवर का जल पानी पाने के मार्ग को रोकने, पहले के पानी को रेहट आदि साधनों से उलीच कर बाहर निकालने तथा सूर्य के ताप से सूख जाता है, इसी प्रकार पाप कर्मों के आश्रव को पूर्वोक्त पद्धति से रोकने पर तथा व्रत-प्रत्याख्यान आदि से पापकर्मों को निकाल देने एवं परीषहसहन आदि के ताप से उन्हें सुखा देने पर संयमी के पुराने (करोड़ों भवों में) संचित पापकर्म भी तप द्वारा क्षीण हो जाते हैं / तप के भेद-प्रभेद 7. सो तवो दुविहो वृत्तो बाहिरमन्तरो तहा। बाहिरो छव्विहो वुत्तो एवमन्भन्तरो तवो // [7] वह (पूर्वोक्त कर्मक्षयकारक) तप दो प्रकार का कहा गया है-~बाह्य और प्राभ्यन्तर / बाह्य तप छह प्रकार का है, इसी प्रकार प्राभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का कहा गया है / विवेचन--बाह्य तप : स्वरूप और प्रकार--जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा रखता है, सर्वसाधारण जनता में जो तप नाम से प्रख्यात है, अथवा दूसरों को जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, जिसका सीधा प्रभाव शरीर पर पड़ता है, जो मोक्ष का बहिरंग कारण है, वह बाह्यतप कहलाता है / भगवती आराधना में बाह्य तप का लक्षण इस प्रकार दिया है—बाह्य तप वह है, जिससे मन दुष्कृत (पाप) के प्रति उद्यत नहीं होता, जिससे प्राभ्यन्तर तप के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो और पूर्वगृहीत स्वाध्याय, व्रतादि योगों की जिससे हानि न हो / बाह्यतप 6 प्रकार का है, जिसका आगे वर्णन किया किया जायेगा। 1. (क) तापयति-अष्टप्रकारं कर्म दहतीति तपः / -पाव. म. 1 अ. (ख) ताप्यन्ते रसादिधातवः कर्माण्यनेनेति तपः। -धर्म. अधि. 3 (ग) कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तपः / ...- राजवा. 9 / 6 / 17 / / (घ) उत्तरा, वत्ति, अभिधान रा. कोष भा. 4, प. 2199 (ङ) कर्ममलविलयहेतोोधशा तप्यते तपः प्रोक्तम् / —पद्मनन्दिपंचविशतिका 198 (च) तुलना कीजिए-'यथाऽग्निः संचितं तुणादि दहति तथा कर्म मिथ्यादर्शनाद्यजितं निर्दहतीति तप इति निरुच्यते।" देहेन्द्रियतापाद् वा // ' -राजवातिक 9 / 20-21 (छ) "बारसविहेण तवसा णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि / बेरग्गभावणादो गिरहंकारस्स गाणिस्स // " - कातिकेयानुप्रेक्षा 102 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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