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________________ 522] [उत्तराध्ययनसूत्र किया जाता है। उसके भी अन्तिम खण्ड के असंख्यात सूक्ष्म खण्ड बनते हैं, उनमें से प्रत्येक खण्ड एकएक समय में क्षीण किया जाता है। इस प्रकार मोहनीयकर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है / मोहनीयकर्म के क्षीण होते ही छद्मस्थ वीतराग (यथाख्यात) चारित्र की प्राप्ति होती है / जो अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। उसके जब अन्तिम दो खण्ड शेष रहते हैं, तब पहले समय में निद्रा, प्रचला, देवगति, आनुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वज्रऋषभ के सिवाय शेष संहनन और समचतुरस्र के सिवाय शेष संस्थान, तीर्थंकर नामकर्म एवं प्राहारक नाम कर्म क्षीण हो जाते हैं। चरम समय में जो क्षीण होता है, वह प्रस्तुत सूत्र (71) में उल्लिखित है। यथा--५ ज्ञानावरणीय, 6 दर्शनावरणीय और 5 अन्तराय, ये सब एक साथ ही क्षीण होते हैं / इस प्रकार घातिकर्मचतुष्टय के क्षीण होते ही केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्त शक्ति प्रकट हो जाते हैं / ' केवलज्ञानी से मुक्त होने तक केवली के जब तक भवोपनाही कर्म शेष रहते हैं, तब तक वह संसार में रहता है। उसकी स्थितिमर्यादा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः देशोन करोड पूर्व की है। जब तक केवली उक्त स्थितिमर्यादा में सयोगी अवस्था में रहता है, तब उसके अनुभागवन्ध एवं स्थितिबन्ध नहीं होता, क्योंकि कषायभाव में ही कर्म का स्थिति-अनुभागबन्ध होता है / कषायरहित होने से केवली के मन-वचन-काया के योगों से ऐर्यापथिक कर्मबन्ध होता है, जिसकी स्थिति केवल दो समय की होती है / उसका बन्ध गाढ़ (निधत्त और निकाचित) नहीं होता। इसीलिए उसे बद्ध और स्पृष्ट कहा है / उस में रागद्वेषजनित स्निग्धता न होने से दीवार पर लगे सूखे गोले की तरह पहले समय में कर्म बंधता है और दूसरे समय में झड़ जाता है। इसी को स्पष्ट करते हुए कहा है --पहले समय में बद्ध स्पृष्ट होता है, दूसरे समय में उदीरित अर्थात्-उदयप्राप्त और वेदित होता है, तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है। अत: चौथे समय वह सर्वथा अकर्म बन जाता है अर्थात् उस कर्म की कर्म-अवस्था नहीं रहती / इससे आगे की अवस्था का वर्णन अगले सूत्र में किया गया है / / केवली के योगनिरोध का क्रम 73. अहाउयं पालइत्ता अन्तो-मुहुत्तद्वाक्सेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइ सुक्कज्झाणं, झायमाणे, तप्पढमयाए मणजोगं निरुम्भइ, मणजोगं निरुम्भइत्ता वइजोगं निरुम्भइ, वइजोगं निरुम्भइत्ता, प्राणापाणुनिरोहं करेइ, आणापाणुनिरोहं करेइत्ता ईसि पंचरहस्सक्खरुच्चारद्धाए य णं अणगारे समुच्छिन्न किरियं अनियट्टिसुक्कज्झाणं झियायमाणे बेयणिज्जं, आउयं, नाम, गोतं च एए चत्तारि वि कम्मसे जुगवं खवेइ // [73] (केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात्) शेष प्रायु को भोगता हुअा, जब अन्तर्मुहूर्त- परिमित आयु शेष रहती है, तब अनगार योगनिरोध में प्रवृत्त होता है / उस समय सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान को ध्याता हुआ सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करता है। फिर वचनयोग का निरोध करता है। उसके पश्चात् पानापान (अर्थात् श्वासोच्छ्वास) का निरोध करता है। श्वासोच्छ्वास का निरोध करके स्वल्प-(मध्यम गति से) पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण-काल 3. बृहद्वत्ति, पत्र 594 से 596 तक 4. (क) वही, पत्र 596 (ख) उत्तरज्झयणाणि टिप्पण (मु. नथमलजी), पृ. 248-249 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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