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________________ उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्वपरिक्रम] [523 जितने समय में 'समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति' नामक (चतुर्थ) शुक्लध्यान में लीन हुअा अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार कर्मों का एक साथ क्षय करता है। विवेचन-योगनिरोध : स्वरूप और क्रम-योगनिरोध का अर्थ है-~-मन, वचन और काय को प्रवृत्ति का सर्वथा रुक जाना। केवली की प्रायु जब अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है, तब वह योगनिरोध करता है / उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-~-शुक्लध्यान के तीसरे पाद में प्रवर्त्तमान साधक सर्वप्रथम प्रतिसमय मन के पुद्गलों और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्यात समयों में उसका पूर्णतया निरोध कर लेता है। फिर वचन के पुद्गलों और व्यापार का प्रतिसमय निरोध करतेकरते असंख्यात समयों में उसका (वचनयोग का) पूर्ण निरोध कर लेता है। तत्पश्चात् प्रतिसमय काययोग के पुद्गलों और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्यात समयों में श्वासोच्छ्वास पूर्ण निरोध कर लेता है।' शैलेशी-अवस्था-प्राप्ति : क्रम और अवधि-योगों का निरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है। इसे अयोगीकेवलीगुणस्थान (14 वां गुणस्थान) कहते हैं। न तो विलम्ब से और न शीघ्रता से, किन्तु मध्यमगति से 'अ इ उ ऋ ल', इन पांच लघु अक्षरों का उच्चारण करने जितना काल 14 वें अयोगीके वलीगुणस्थान की भूमिका का होता है। इस बीच 'समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति' नामक शुक्लध्यान का चतुर्थपाद होता है। इस ध्यान के प्रभाव से चार अघाती (भवोपनाही) कर्म सर्वथा क्षीण हो जाते हैं। उसी समय आत्मा औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर को छोड़कर देहमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है। समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान--वह है, जिसमें मानसिक, वाचिक एवं कायिक, समस्त क्रियाओं का सर्वथा अन्त हो जाता है तथा जो सर्वकर्मक्षय करने से पहले निवृत्त नहीं होता / यह शंलेशी अर्थात् मेरुपर्वत के समान निष्कम्प-अचल आत्मस्थिति है / मोक्ष की ओर जीव की गति एवं स्थिति का निरूपण 74. तओ ओरालियकम्माइं च सव्वाहि विप्पजहणाहि विष्पजहिता उज्जुसे ढिपत्ते, अफुसमाणगई, उड्ड एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गन्ता, सागारोवउत्ते सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिवाएइ, सव्वदुक्खाणमन्तं करेइ / / एस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स अज्झयणस्स अट्ठ समणेणं भगवया महावीरेणं आधविए, पन्नविए, परूविए, दसिए, उवदंसिए / --ति बेमि। 74] उसके बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के लिए सर्वथा परित्याग कर देता है। संपूर्णरूप से इन शरीरों से रहित होकर वह ऋजुश्रेणी को प्राप्त होता है और एक समय में अस्पृशद्गतिरूप ऊर्ध्वगति से बिना मोड़ लिए (अविग्रहरूप से) सीधे वहाँ (लोकान में) जा 1. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 262 (ख) प्रौपपातिक सूत्र, सू. 43 2. उत्तरा. (साध्वी चन्दना) (टिप्पण), पृ. 450 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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