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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपरिक्रम] [521 मान (अहंकार) एक कषायविशेष है। मान का निग्रह करने से जीव का परिणाम कोमल हो जाता है / फलतः इसके उदय से बंधने वाले मोहनीयकर्मविशेष का बन्ध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। __इसी तरह माया (कपट) पर विजय से सरलता को और लोविजय से सन्तोष को प्राप्त होता है / और माया तथा लोभ के उदय से बंधने वाले मोहनीयकर्मविशेष का बंध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्मो की निर्जरा करता है। राग-द्वेष-मिथ्यादर्शन-विजय का क्रमशः परिणाम-जब तक राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन रहता है, तब तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना होती रहती है। इन पर विजय प्राप्त करने अर्थात् इनका निग्रह या निरोध करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए व्यक्ति उद्यत हो जाता है / ज्ञानादि रत्नत्रय की निरतिचार विशुद्ध पाराधना से पाठ कर्मों की जो कर्मग्रन्थि है, अर्थात् घातिकर्मचतुष्टय का समूह है, साधक उसका भेदन कर डालता है, जिससे केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो जाता है। उसके पश्चात् शेष रहे चार अघाती कर्मों को भी सर्वथा क्षीण कर देता है और अन्त में कर्मरहित हो जाता है / कर्मग्रन्थि तोड़ने का क्रम प्रस्तुत सूत्र 71 में जो कर्मग्रन्थि अर्थात् घातिकर्मचतुष्टय के क्षय का क्रम बताया है, उसका विवरण इस प्रकार है-वह सर्वप्रथम मोहनीयकर्म की 28 प्रकृतियों (16 कषाय, 6 नोकषाय एवं सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिश्रमोहनीय) का क्षय करता है। बृहद्वृत्ति के अनुसार उसका क्रम यों है सबसे पहले अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टय के बहुभाग को अन्तर्मुहूर्त में क्षीण करता है, उसके अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व के पुद्गलों में प्रक्षिप्त कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ मिथ्यात्व के बहुभाग को क्षीण करता है और उसके अंश को सम्यग्मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ सम्यमिथ्यात्व को क्षीण करता है। तदनन्तर उसी प्रकार सम्यगमिथ्यात्व के अंशसहित सम्यक्त्वमोह के पुद्गलों को क्षीण करता है / तदनन्तर सम्यक्त्वमोह के अवशिष्ट पुद्गलों सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषायचतुष्टय को क्षीण करना प्रारम्भ कर देता है। उसके क्षयकाल में वह दो गति (नरक-तिर्यञ्च), दो प्रानुपूर्वी (नरकानुपूर्वी-तिर्यञ्चानुपूर्वी), जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति), आतप, उद्योत, स्थावरनाम, साधारण, अपर्याप्त, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि को क्षीण करता है / तत्पश्चात् इसके अवशिष्ट अंश को नपुंसकवेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है, उसके अवशिष्टांश को स्त्रीवेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है। उसके अवशिष्टांश को हास्यादि षट्क में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है / मोहनीयकर्म का क्षय करने वाला यदि पुरुष हो तो पुरुषवेद के दो खण्डों को, स्त्री या नपुंसक हो तो अपने-अपने वेद के दो-दो खण्डों को हास्यादि षट्क के अवशिष्टांशसहित क्षीण करता है / फिर वेद के तृतीय खण्ड सहित संज्वलन क्रोध को क्षीण करता है, इसी प्रकार पूर्वाशसहित संज्वलन मान-माया-लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात् संज्वलन लोभ के संख्यात खण्ड किये जाते हैं। उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक अन्तर्मुहुर्त में क्षीण किया जाता है। उसके अन्तिम खण्ड के फिर असंख्यात सूक्ष्म खण्ड होते हैं, उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक समय में क्षीण 1. उतरा. प्रियशिनीटीका भा. 4, पृ. 351 से 353 तक 2. उतरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 260 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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