________________ 520] [उत्तराध्ययनसून 72. पेज्ज-दोस-मिच्छादसणविजएणं भंते जोवे कि जणयइ ? पेज्ज-दोस-मिच्छादसणविजएणं नाण-दसण-चरित्ताराहणयाए प्रभुढें / अढविहस्स कम्मस्स कम्मगण्ठिविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुन्धि अढवीसइविहं मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ, पंचविहं नाणावरणिज्ज, नवविहं दंसणावरणिज्ज, पंचविहं अन्तरायं-एए तिन्नि वि कम्मसे जुगवं खवेइ / तो पच्छा अणुत्तरं, अणंत, कसिणं, पडिपुण्णं, निरावरणं, वितिमिरं, विसुद्ध, लोगालोगप्पभावगं, केवल-वरनाणदंसणं समुप्पाडेइ / जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बन्धइ सुहफरिसं, दुसमयठिइयं / तं पढमसमए बद्ध, बिइयसमए वेइयं, तइयसमए निज्जिण्णं / तं बद्ध, पुट्ठ, उदीरियं, वेइयं, निज्जिण्णं सेयाले य अकम्मं चावि भवइ / [72 प्र.] भन्ते ! प्रेय (राग), द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] प्रेय, द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय पाने से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है। पाठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थि को खोलने के लिए सर्वप्रथम यथाक्रम से मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्षय करता है। तदनन्तर ज्ञानावरणीयकर्म की पांच, दर्शनावरणीयकर्म की नौ और अन्तरायकर्म की पांच ; इन तीनों कर्मों की प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है। तत्पश्चात् वह अनुत्तर, अनन्त, कृत्स्न (-सम्पूर्ण-वस्तुविषयक), प्रतिपूर्ण, निरावरण, अज्ञानतिमिर से रहित, विशुद्ध और लोकालोक-प्रकाशक श्रेष्ठ केवलज्ञान-केवलदर्शन को प्राप्त करता है। जब तक वह सयोगी रहता है, तब तक ऐर्यापथिक कर्म बांधता है। वह बन्ध भो सुखस्पर्शी (सातावेदनीयरूप पुण्यकर्म) है। उसकी स्थिति दो समय की है। प्रथम समय में बन्ध होता है, द्वितीय समय में वेदन होता है और तृतीय समय में निर्जरा होती है। वह क्रमशः बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में प्राता है, फिर वेदन किया (भोगा) जाता है, निर्जरा को प्राप्त (क्षय) हो जाता है ! (फलतः) अागामो काल में (अर्थात् अन्त में) वह कर्म अकर्म हो जाता है / विवेचन---कषायविजय : स्वरूप और परिणाम--कषाय चार हैं----क्रोध, मान, माया और लोभ / क्रोधमोहनीयकर्म के उदय से होने वाला जीव का प्रज्वलनात्मक परिणामविशेष क्रोध है। क्रोध से जीव कृत्य-अकृत्य के विवेक से विहीन बन जाता है। क्योंकि क्रोध उस विवेक को नष्ट कर देता है। इसका परिपाक बहुत दुःखद होता है'; इस प्रकार के निरन्तर विचार से जीव क्रोध पर विजय पा लेता है। क्रोध पर विजय पा लेने से जीव के चित्त में क्षमाभाव आ जाता है। इस क्षमाभाव की पहचान यह है कि जीव इसके सद्भाव में दूसरे के कठोर-कटु वचनों को बिना किसी उत्तेजना के सह लेता है। इस कारण क्रोध के उदय से बंधने वाले मोहनीयकर्मविशेष (क्रोधवेदनीय) का बन्ध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्मों को निर्जरा होती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org