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________________ उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम) [519 विवेचन-पंचेन्द्रियनिग्रह : स्वरूप और परिणाम-पांचों इन्द्रियों के विषय क्रमश: शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श हैं। प्रत्येक इन्द्रिय का स्वभाव अपने-अपने विषय की ओर दौड़ना या उनमें प्रवृत्त होना है। इन्द्रियनिग्रह का अर्थ है-अपने विषय की ओर दौड़ने वाली इन्द्रिय को उस र से हटाना / मनोज्ञ-अमनोज्ञ प्रतीत होने वाले विषयों के प्रति होने वाले रागद्वेष से रहित होना. मन को समत्व में स्थापित करना। प्रत्येक इन्द्रिय के निग्रह का परिणाम भी उसके विषय के प्रति रागद्वेष न करना है, ऐसा करने से उस निमित्त से होने वाला कर्मबन्ध नहीं होता। साथ ही पहले के बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होती है।' 67-71 कषायविजय एवं प्रेय-द्वेष-मिथ्यादर्शनविजय का परिणाम 68. कोहविजएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? कोहविजएणं खन्ति जणयइ, कोहवेयणिज्जं कम्मं न बन्धइ, पुष्वबद्ध च निज्जरेइ / [68 प्र.] भन्ते ! क्रोधविजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] क्रोधविजय से जीव क्षान्ति को प्राप्त होता है / क्रोधवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता; पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है / 69. माणविजएणं भंते ! जोवे कि जणयइ ? माणविजएणं महवं जणयइ, माणवेयणिज्ज कम्मं न बन्धइ, पुष्वबद्ध च निज्जरेइ / [66 प्र.] भन्ते ! मानविजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] मानविजय से जीव मृदुता को प्राप्त होता है / मानवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है / 70. मायाविजएणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ, मायावेयणिज्ज कम्मं न बन्धइ, पुव्यबद्धच निज्जरेइ। [70 प्र.] भन्ते ! मायाविजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] मायाविजय से जीव ऋजुता को प्राप्त होता है / मायावेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता; पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। 71. लोमविजएणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? लोभविजएणं संतोसीभावं जणयह, लोभवेयणिज्जं कम्मं न बन्धह, पुत्वबद्ध च निज्जरेइ / [71 प्र.] भन्ते ! लोभविजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] लोभविजय से जीव सन्तोषभाव को प्राप्त होता है / लोभवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता; पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है / 1. उत्तरा. प्रियदर्दाशनीटीका भा. 4, पृ. 346 से 349 तक का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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