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________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] [517 नाण-विणय "संपाउणइ-श्रुतज्ञानी अभ्यास करता-करता ज्ञान अर्थात् अवधि आदि ज्ञानों को तथा विनय, तप और चारित्र को पराकाष्ठा (योगों) को प्राप्त कर लेता है।' ससमय-परसमय-संघायणिज्जे : दो तात्पर्य--(१) श्रुतज्ञानी स्वमत एवं परमत के विद्वानों के संशयों को सम्यक् प्रकार से संघातनीय अर्थात् मिटाने—छिन्न करने के योग्य होता है, (2) स्वसमयपरसमय के व्यक्तियों के संशयछेदनार्थ संघातनीय-प्रामाणिक पुरुष के रूप में मिलन के योग्य केन्द्र (केन्द्रीभूत पूरुष) होता है। दर्शनसम्पन्नता : स्वरूप और परिणाम-दशन का अर्थ यहाँ क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) किया गया है। उक्त दर्शनसम्पन्नता से व्यक्ति भव भ्रमणहेतुरूप मिथ्यात्व का सर्वथा उच्छेद करता है, अर्थात्-वह क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है / तत्पश्चात् उसका प्रकाश बुझता नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उत्कृष्टतः उसो भव में, मध्यम ओर जघन्य की अपेक्षा से तीसरे या चौथे भव में केवलज्ञान का प्रकाश प्राप्त हो जाने से वह बुझता नहीं, यानी उसके केवलज्ञानकेवलदर्शन का प्रकाश प्रज्वलित रहता है। फिर वह सर्वोत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन (केवलज्ञान-केवलदर्शन) के साथ अपनी आत्मा को संयोजित करता (जोड़ता) हुमा तथा उनमें सम्यक् प्रकार से भाविततन्मय करता हुआ विचरता है। चारित्रसम्पन्नता : तीन परिणाम-(१) शैलेशीभाव की प्राप्ति, (2) केवलिसत्क चार कर्मों का क्षय और (3) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त दशा की प्राप्ति / 'सेलेसी भावं जणयइ' : तीन अर्थ-(१) शैलेश-मेरुपर्वत की तरह निष्कम्प अवस्था को प्राप्त होता है, (2) शैल-चट्टान की भांति स्थिर ऋषि--शैलर्षि हो जाता है, अथवा (3) शील+ ईशशीलेश, शीलेश की अवस्था शैलेशी, इस दष्टि से शैलेशी का अर्थ होता है-शोल-चारित्र (संवर) की पराकाष्ठा को पहुँचा हुआ / 62.66 पांचों इन्द्रियों के निग्रह का परिणाम 63. सोइन्दियनिग्गहेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? सोइन्दियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु सद्देसु रागद्दोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बन्धइ, पुरुषबद्धं च निज्जरेइ / [63 प्र.] भंते ! श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में होने वाले राग और द्वेष 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 258 2. (क) उत्तरज्झयणिज्ज (टिप्पण) (मु. नथमलजी) पृ. 247 (ख) स्वपरसमययोः संघातनीय:--प्रमाणपूरुषतया मीलनीयः..."भवति / इह च स्वपरसमयशब्दाभ्यां तद्वदिन: पुरुषा उच्यन्ते, तेष्वेव संशयादिव्यवच्छेदाय मीलनसंभवात् / 3. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 258 4. (क) उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण) (मुनि नयमलजी) पृ. 247 (ख) विशेषावश्यकभाष्य गा. 3683-3685 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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