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________________ 516] [उत्तराध्ययनसून [60 प्र.] भन्ते ! ज्ञानसम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] ज्ञानसम्पन्नता से जीव सब भावों को जानता है। ज्ञानसम्पन्न जीव चातुर्गतिक संसाररूपी कान्तार (महारण्य) में विनष्ट नहीं होता। जिस प्रकार सूत्र (धागे) सहित सुई कहीं गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती (खोती नहीं), उसी प्रकार ससूत्र (शास्त्रज्ञान सहित) जीव संसार में भी विनष्ट नहीं होता। (वह) ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त होता है, तथा स्वसमय-परसमय में संघातनीय हो जाता है। 61. सणसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ? दसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ, परं न विज्झायइ / अणुत्तरेणं नाणदसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे, सम्मं भावेमाणे विहरइ / [61 प्र.] भंते ! दर्शनसम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] दर्शनसम्पन्नता से संसार के हेतु-मिथ्यात्व का छेदन करता है। उसके पश्चात् सम्यक्त्व का प्रकाश बुझता नहीं है / (फिर वह) अनुत्तर (श्रेष्ठ) ज्ञान-दर्शन से प्रात्मा को संयोजित करता हुआ तथा उनसे आत्मा को सम्यक् रूप से भावित करता हुआ विचरण करता है। 62. चरित्तसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? ' चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं जणयह / सेलेसि पडिवनय अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ / तमो पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ, सम्वदुक्खाणमंतं करेइ ! [62 प्र.] भन्ते ! चारित्रसम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? उ.] चारित्रसम्पन्नता से (साधक) शैलेशीभाव को प्राप्त कर लेता है। शैलेशीभाव को प्रनगार चार अघाती कर्मों का क्षय करता है। तत्पश्चात् वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त कर देता है। विवेचन--ज्ञानसम्पन्नता : स्वरूप और परिणाम-प्रसंगवश ज्ञान का अर्थ यहाँ श्रुतज्ञान किया गया है। उससे सम्पन्न-सम्यक प्रकार से श्रुतज्ञानप्राप्ति से युक्त। इसके चार प (1) सर्वपदार्थों का ज्ञान, (2) संसार में विनाशरहितता (नहीं भटकता), (3) ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों की संप्राप्ति प्रौर (4) स्वसिद्धान्त-परसिद्धान्त विषयक संशयछेदनकर्तृत्व / ' ___ सव्वभावाहिगमं–नन्दीसूत्र के अनुसार श्रुतज्ञानसम्पन्न साधक उपयोगयुक्त होने पर सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को जान—देख सकता है। संसारे न विणस्सइ : आशय-संसार में विनष्ट नहीं होता (रुलता नहीं), अर्थात् मोक्षमार्ग से अधिक दूर नहीं होता। 1. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 258 2. 'तत्थ बन्वओ णं सुअनाणी उवउत्त सव्वदम्बाई जागइ पासई, खित्तओ णं सु. उ. सम्वं खेत जा. पा. कालओ णं सु. उ. सय्यकालं जा. पा, मावओ णं सू. उ. सम्वे भावे जा. पासइ।' -नन्दीसूत्र सू. 57 3. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 258 गाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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