________________ उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] [515 में विद्यमान (वेदनीयादि चार) कर्मों का क्षय करता है। तत्पश्चात् सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त करता है। विवेचन-समाधारणा का अर्थ है सम्यक् प्रकार से व्यवस्थापन या नियोजन / मनःसमाधारणा : स्वरूप और परिणाम-पागमोक्त भावों के (श्रुत के) चिन्तन में मन को भलीभांति लगाना या व्यवस्थित करना। इसके चार परिणाम-(१) एकाग्रता, (2) ज्ञान-पर्यवप्राप्ति, (3) सम्यक्त्वविशुद्धि और (4) मिथ्यात्वनिर्जरा / मन की एकाग्रता होने से वह साधक ज्ञान के विशेष-विशेष विविध तत्त्व श्रुतबोधरूप पर्यायों (प्रकारों) को प्राप्त करता है, जिससे सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है, मिथ्यात्व नष्ट हो जाता है।' वचनसमाधारणा : स्वरूप और परिणाम-वचन को स्वाध्याय में भलीभांति संलग्न रखना वचनसमाधारणा है। इसके तीन परिणाम होते हैं--(१) वाणी के विषयभूत दर्शनपर्यायों की विशुद्धि, (2) सुलभबोधित्व एवं (3) दुर्लभबोधित्व का क्षय / निष्कर्ष-वचन को सतत स्वाध्याय में लगाने से प्रज्ञापनीय दर्शनपर्याय विशुद्ध बनते हैं, फलतः अन्यथा निरूपण नहीं होता / दर्शनपर्याय की विशुद्धि ज्ञानपर्यायों के उदय से होती है / कायसमाधारणा : स्वरूप और परिणाम-काय को संयम की शुद्ध (निरवद्य) प्रवृत्तियों में भलीभांति संलग्न रखना कायसमाधारणा है / इसके परिणाम चार हैं--(१) चारित्रपर्यायों की शुद्धि, (2) यथाख्यातचारित्र की विशुद्धि (प्राप्ति), (3) केवलियों में विद्यमान चार कर्मों का क्षय और अन्त में (4) सिद्धदशा की प्राप्ति / 56-61 ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पन्नता का परिणाम 60. नाणसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? नाणसंपन्नयाए णं जोवे सम्वभावाहिगमं जणयइ / नाणसंपन्ने गं जोवे चाउरन्ते संसारकन्तारे न विणस्सइ / जहा सूई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ / तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ॥ नाण-विणय-तव-चरित्तजोगे संपाउणइ, ससमय-परसमयसंघाणिज्जे भवइ / 1. (क) मनसः सम् इति सम्यक, प्राडिति मर्यादामाभिहितभावाभिव्याप्त्या अवधारणं--व्यवस्थापनं मन:समाधारणा, तया। --बृहद वृत्ति, पत्र 592 (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 256 2. (क) वाक्समाधारणया स्वाध्याय एवं सन्निवेशनात्मिकया। (ख) उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण) (मुनि नथमलजी), पृ. 247 3. (क) कायसमाधारणया-संयमयोगेषु शरीरस्य सम्यग्व्यवस्थापनरूपया / (ख) उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण) (मुनि नथमलजी), पृ. 247 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org