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________________ 514] [उत्तराध्ययनसूत्र भी दो हैं—(१) निविचारता-विचारशून्यता, अथवा निर्विकारता-विकथा से मुक्त होना / (2) मौन से आत्मलीनता अथवा धर्मध्यान आदि अध्यात्मयोग से युक्तता।' कायगुप्ति : स्वरूप और परिणाम-शरीर को अशभ चेष्टाओं--प्रवृत्तियों या कार्यों से हटा कर शुभ चेष्टाओं—प्रवृत्तियों या कार्यों में लगाना कायगुप्ति है। इसके दो परिणाम : (1) अशुभ कायिक प्रवृत्ति से समुत्पन्न आश्रव का निरोध रूप संवर तथा (2) हिंसादि पाश्रवों का निरोध / / 56.58 मन-वचन-कायसमाधारणता का परिणाम 57. मणसमाहारणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? मणसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ / एगग्गं जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ / नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ, मिच्छत्तं च निज्जरेइ / [57 प्र. भन्ते ! मन की समाधारणता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] मन की समाधारणता से जीव एकाग्रता प्राप्त करता है / एकाग्रता प्राप्त करके (वह) ज्ञान-पर्यवों को प्राप्त करता है / ज्ञानपर्यवों को प्राप्त करके सम्यक्त्व को विशुद्ध करता है और मिथ्यात्व की निर्जरा करता है। 58. वयसमाहारणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? वयसमाहारणयाए णं वयसाहारणसणपज्जवे विसोहेइ / वयसाहारणदसणपज्जवे विसोहेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ, दुल्लहबोहियत्तं निज्जरेइ / [58 प्र.] भन्ते ! वाक्समाधारणता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] वाकसमाधारणता से जीव वाणी के विषयभूत (साधारण वाणी से कथनयोग्य पदार्थविषयक) दर्शन के पर्यवों को विशुद्ध करता है / वाणी के विषयभूत दर्शन के पर्यवों को विशुद्ध करके सुलभता से बोधि को प्राप्त करता है, बोधि की दुर्लभता की निर्जरा करता है। 59. कायसमाहारणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ? कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ। चरित्तपज्जवे विसोहेत्ता अहक्खायचरितं विसोहेइ / अहक्खायचरितं विसोहेत्ता चत्तारिकेवलिकम्मसे खयेइ / तओ पच्छा सिज्माइ, बुज्मह, मुच्चइ, परिनिव्याएइ, सन्धदुषखाणमन्तं करेइ / [56 प्र.] भन्ते ! कायसमाधारणता से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ.] कायसमाधारणता से जीव चारित्र के पर्यवों को विशुद्ध करता है। चारित्र-पर्यवों को विशुद्ध करके यथाख्यातचारित्र को विशुद्ध करता है। यथाख्यातचारित्र को विशुद्ध करके केवली 1. (क) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका भा. 4, पृ. 331 (ख) उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण) (मुनि नथमलजी) पृ. 246 2. (क) उत्तरा. प्रियशिनीटोका भा. 4, पृ. 333 (ख) उत्तरा. टिप्पण, पृ. 246 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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