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________________ उनतीसौं अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] [513 53 से 55 गुप्ति की साधना का परिणाम 54. मणगुत्तयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ / एमग्गचित्ते णं जीवे मणगुते संजमाराहए भवइ / [54 प्र.] भन्ते ! मनोगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता प्राप्त करता है। एकाग्रचित्त वाला जीव (अशुभ विकल्पों से) मन की रक्षा करता है और संयम का पाराधक होता है। . 55. वयगुत्तयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? वयगुत्तयाए णं निधियारं जणयह / निम्वियारे णं जोवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्माणगुत्ते यावि भव। {55 प्र.} भन्ते ! वचनगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] वचनगुप्ति से जीव निर्विकार भाव को प्राप्त होता है। निर्विकार (या निर्विचार) जीव सर्वथा वाग्गृप्त तथा अध्यात्मयोग के साधनभूत ध्यान से युक्त होता है। 56. कायगुत्तयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ / संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ / [56 प्र.] कायगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] कायगुप्ति से जीव संवर (अशुभ प्राश्रव-प्रवृत्ति के निरोध) को प्राप्त होता है। संवर से कायगुप्त होकर (साधक) फिर से होने वाले पापाश्रव का निरोध करता है। विवेचन : मनोगुप्ति : स्वरूप और परिणाम-अशुभ अध्यवसाय में जाते हुए मन को रोकना मनोगुप्ति है / शास्त्र में मनोगुप्ति के तीन रूप बताए हैं--(१) प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करना, (2) जिसमें धर्मध्यान का अनुबन्ध हो तथा जो शास्त्रानुसार परलोक का साधन हो, ऐसो माध्यस्थ्य परिणति हो और (3) शुभ एवं अशुभ मनोवृत्ति के निरोध से योगनिरोधावस्था में होने वाली आत्मस्वरूपावस्थानरूप परिणति हो / यही तथ्य योगशास्त्र में बताया है-समस्त कल्पनाओं से रहित होना और समभाव में प्रतिष्ठित हो कर प्रात्मस्वरूप में रमण करना मनोगुप्ति है। मनोगुप्ति के तीन सुपरिणाम हैं-(१) एकाग्रता, (2) अशुभ अध्यवसायों से मन की रक्षा और (3) समता-यात्मस्वरूपरमणता तथा ज्ञानादि रत्नत्रय रूप संयम की आराधना / मनोगुप्ति में अकुशल मन का निरोध और कुशल मन को प्रवृत्ति होती है, वही एकाग्रता है / इसमें चित्त का सर्वथा निरोध न होकर, अनेक पालम्बनों में बिखरा मन एक पालम्बन में स्थिर हो जाता है। वचनगुप्ति : स्वरूप और परिणाम-वचनगुप्ति के दो रूप हैं--(१) सर्वथा वचन का निरोधमौन और (2) अशुभ (अकुशल) वचन का निरोध एवं शुभ (कुशल)वचन में प्रवृत्ति / इसके परिणाम 1. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 255 (ख) विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् / आत्मारामं मनस्तज्ज: मनोगुप्तिरुदाहृता / / -योगशास्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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