________________ 510] [उत्तराध्ययनसूत्र [45 प्र. भगवन् सर्वगुणसम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] सर्वगुणसम्पन्नता से जीव अपुनरावृत्ति (मुक्ति) को प्राप्त होता है। अपुनरावृत्ति को प्राप्त जीव शारीरिक और मानसिक दुःखों का भागी नहीं होता। विवेचन—सर्वगुणसम्पन्नता-यात्मा के निजी गुण, जो कि उसकी पूर्णता के लिए आवश्यक हैं, तीन हैं--निरावरण ज्ञान, सम्पूर्ण दर्शन (क्षायिक सम्यक्त्व) और पूर्ण (यथाख्यात) चारित्र (सर्वसंवर)। ये तीन गुण परिपूर्ण रूप में होने पर आत्मा सर्वगुणसम्पन्न होती है। इसका तात्पर्य यह है कि अकेले ज्ञान या अकेले दर्शन को पूर्णतामात्र से सर्वगुणसम्पन्नता नहीं होती, किन्तु जब तीनों परिपूर्ण होते हैं, तभी सर्वगुणसम्पन्नता प्राप्त होती है / उसका तात्कालिक परिणाम अपुनरावृत्ति (मुक्ति) है और परम्परागत परिणाम है---शारीरिक, मानसिक दुःखों का सर्वथा अभाव / ' 45. वीतरागता का परिणाम 46. बीयरागयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? वीयरागयाए णं नेहाणुबन्धणाणि, तण्हाणुबन्धणाणि य वोच्छिन्दइ / मणुन्नेसु सद्द-फरिस-रसरूव-गन्धेसु सचित्ताचित्त-मीसएसु चेव विरज्जइ / [46 प्र.] भंते! वीतरागता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] वीतरागता से जीव स्नेहानुबन्धनों और तृष्णानुबन्धनों का विच्छेद करता है। मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध से तथा सचित्त, अचित्त एवं मिश्र द्रव्यों से विरक्त होता है / विवेचन-वीतरागता : अर्थ और परिणाम-वीतरागता का अर्थ है-राग-द्वेषरहितता। इसके तीन परिणाम हैं-(१) स्नेहबन्धनों का विच्छेद, (2) तृष्णाजनितबन्धनों का विच्छेद और (3) मनोज्ञ शब्दादि विषयों के प्रति विरक्ति / स्नेहानुबन्धन और तृष्णानुबन्धन का अन्तर-पुत्र आदि में जो मोह-ममता या प्रीति होती है और तदनुरूप बन्धन-परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती है, उसे स्नेहानुबन्धन कहते हैं, जब कि धन आदि के प्रति जो प्राशा-लालसा होती है और तदनुरूप बन्धन-परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, उसे तृष्णानुबन्धन कहते हैं। 46 से 46 क्षान्ति, मुक्ति, प्रार्जव एवं मार्दव से उपलब्धि 47. खन्तीए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? खन्तीए णं परीसहे जिणइ। 1 'ज्ञानादिसर्वगुणसहितत्वे / ' –बृहद्वृत्ति, पत्र 590 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 590 : वीतरागेन रागद्वेषाभावेन / 3. स्नेहस्यानुकूलानि बन्धनानि पुत्रमित्रकलत्रादिषु प्रेमपाशान् तया तृष्णाणुबन्धनानि द्रव्यादिषु प्राशापाशान् / --उ. बृ. बृत्ति, अ. रा. कोष भा. 6, पृ. 1336 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org