________________ उनतीस अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रमा विवेचन--प्रतिरूपता : स्वरूप और परिणाम-प्रतिरूप शब्द के तीन अर्थ यहाँ संगत हैंशान्त्याचार्य के अनुसार--(१) सुविहित प्राचीन मुनियों का रूप, (2) स्थविरकल्पी मुनि के समान वेष वाला, मूलाराधना के अनुसार-(३) जिन के समान रूप (लिंग) धारण करने वाला / ' प्रतिरूपता के दस परिणाम-(१) लाधव, (2) अप्रमत्त, (3) प्रकटलिंग, (4) प्रशस्तलिंग, (5) विशुद्धसम्यक्त्व, (6) सम्पूर्ण धैर्य-समिति-युक्त, (7) विश्वसनीयरूप, (8) अल्पप्रतिलेखनावान् या अप्रतिलेखनी, (8) जितेन्द्रिय और (10) विपुल तप और समिति से युक्त। स्थानांगसूत्र में पांच कारणों से अचेलक को प्रशस्त कहा गया है--(१) अप्रतिलेखन, (2) प्रशस्तलाघव, (3) वैश्वासिकरूप, (4) तप-उपकरणसंलीनता, (5) विपुल इन्द्रियनिग्रह / इस दृष्टि से यहाँ प्रतिरूप का जिनकल्पीसदश वेष वाला अर्थ ही अधिक संगत लगता है। तत्त्वं केवलिगम्यम / ' 43 वैयावृत्त्य से लाभ 44. वेयावच्चेणं भन्ते ! जोवे कि जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबन्धइ / {44 प्र.] भन्ते ! वैयावृत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] वैयावत्त्य से जीव तीर्थकर नाम-गोत्र का उपार्जन करता है। विवेचन-वैयावृत्त्य का लक्षण और परिणाम-वैयावृत्त्य का सामान्यतया अर्थ है-नि:स्वार्थ (व्यापृत) भाव से गुणिजनों की आहारादि से सेवा करना / पिछले पृष्ठों में तप के सन्दर्भ में वैयावृत्त्य के सम्बन्ध में विस्तार से कहा जा चुका है। यहाँ वैयावृत्त्य से जो परम उपलब्धि होती है, उसका दिग्दर्शन कराया गया है। तीर्थकर-पदप्राप्ति के 20 हेतु बताए गए हैं, उनमें से एक प्रमुख हेतु वयावृत्त्य है / वह पद प्राचार्यादि 10 धर्ममूर्तियों की उत्कटभाव से वैयावृत्त्य करने पर प्राप्त होता 44. सर्वगुणसम्पन्नता से लाभ 45. सव्वगुणसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावित्ति जणयइ / अपुणरावित्ति पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ / 1. (क) 'सुविहितप्राचोनमुनीनां रूपे / ' बृहद्वत्ति, अ. 1 (ख) प्रति : सादृश्ये, ततः प्रतीति:- स्थविरकल्पिकादिसरशं रूपं वेषो यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता उ. अ. 29 / 42, पत्र 589 / 590 (ग) मूलाराधना 2 / 83, 84, 85, 86, 87 2. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 242 3. 'पंचहि ठाणेहि अचेलए पसत्थे भवति, तं.-अप्पा पडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रुवे वेसासिए, तवे अणनाते, विउले इंदियनिग्गहे।' —स्थानांग. 51455 4. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 590 (ख) ज्ञाताधर्मकथांग, अ. 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org