________________ 508] [उत्तराध्ययनसून चतुर्थ चरण पर आरूढ साधक सिद्ध हो जाता है, इसलिए स्वाभाविक है कि फिर उसे आश्रव, बन्धन, राग-द्वेष या तज्जनित जन्ममरण की भूमिका में पुनः लौटना नहीं होता, सर्वथा अनिवृत्ति हो जाती है / चार अघातीकर्म भी सर्वथा क्षीण हो जाते हैं।' केवली कम्मंसे खवेइ : भावार्थ-केवली में रहने वाले चार भवोपनाही कर्मों के शेष रहे अंशों (प्रकृतियों का) भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है।' योग-प्रत्यास्यान और शरीर-प्रत्याख्यान-योग-प्रत्याख्यान का अर्थ है-मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों का त्याग और शरीर-प्रत्याख्यान अर्थात् शरीर से मुक्त हो जाना। ये दोनों क्रमभावी दशाएँ हैं / पहले अयोगिदशा आती है, फिर मुक्तदशा / अयोगिदशा प्राप्त होते ही कर्मों का पाश्रव और बन्ध दोनों समाप्त हो जाते हैं; पूर्णसंवरदशा, सर्वथा कर्ममुक्तदशा आ जाती है। ऐसी स्थिति में प्रात्मा शरीर से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाती है। कर्ममक्त एवं शरीरमक्त महान प्रात्मा अजर, अमर निराकार-निरंजनरूप हो जाती है / वह लोकाग्रभाग में जाकर अपनी शुद्ध स्वसत्ता में स्थिर हो जाती है। उसमें ज्ञानादि अनन्तचतुष्टय रहते हैं। अपने स्वाभाविक गुणों से सम्पन्न हो जाती है / यही योग-प्रत्याख्यान और शरीर-प्रत्याख्यान का रहस्य है। निष्कर्ष-प्रस्तुत 6 सूत्री प्रत्याख्यान का उद्देश्य मुक्ति की ओर बढ़ना और मुक्तदशा प्राप्त करना है, जो कि साधक का अन्तिम लक्ष्य है। 42 प्रतिरूपता का परिणाम 43. पडिरूवयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? पडिरूवयाए गं लावियं जणयइ / लहुभूए णं जीवे अप्पमते, पागलिगे, पसलिंगे, विसुद्धसम्मत्ते, सत्त-समिइसमत्ते, सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे, अप्पडिलेहे, जिइन्दिए, विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ। _[43 प्र.] प्रतिरूपता से, भगवन् ! जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] प्रतिरूपता से जीव लघुता (लाघव) प्राप्त करता है। लघुभूत होकर जीव अप्रमत्त, प्रकट लिंग (वेष) वाला, प्रशस्त लिंग वाला, विशुद्ध सम्यक्त्व, सत्व (धैर्य) और समिति से परिपूर्ण, समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय रूप वाला, अल्प प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल तप एवं समितियों से सम्यक् युक्त (या व्याप्त) होता है। 1. (क) तत्र सद्भावेन--सर्वथा पुनः करणाऽसंभवात् परमार्थेन प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यान, सर्वसंवररूपा शैलेशीति यावत् / (ख) न विद्यते निवृत्तिः–मुक्ति प्राप्य निवर्तनं यस्मिस्तद् अनिवृत्तिः शुक्लध्यान चतुर्थ भेदरूपं जनयति / --बृहद्वृत्ति, पत्र 589 2. 'केवलीकम्मसे—कार्मग्रन्थिकपरिभाषयांऽशशब्दस्य सत्पर्यायत्वात सत्कर्माणि केवलिसत्ककर्माणि-भवोपग्राहीणि क्षपयति / ' -वही, पत्र 589 3. उत्तरा. प्रियदशिनीटीका भा. 4, पृ. 303, 304 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org