________________ उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] [507 अकल्पनीय आहार का त्याग करना भी इसका अर्थ है / इसके दूरगामी सुपरिणामों की चर्चा यहाँ की गई है / सबसे बड़ो दो उपलब्धियाँ प्राहार-प्रत्याख्यान से होती हैं-(१) जीने की आकांक्षा समाप्त हो जाना, (2) अाहार के प्राप्त न होने से उत्पन्न होने वाला मानसिक संक्लेश न होना।' कषाय-प्रत्याख्यान : स्वरूप और परिणाम-कष का अर्थ है :संसार / उसकी प्राय अर्थात लाभ का नाम कषाय है / वे चार हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ / इनके चक्कर में पड़कर आत्मा सकषाय-सराग हो जाती है, जिससे अात्मा में विषमता आती है / इष्ट-अनिष्ट, सुख-दुःख आदि वाह्य स्थितियों में मन कषाय (रागद्वेष) से रंगा होने के कारण संसार (कर्मबन्ध) को बढ़ाता रहता है। कषाय का त्याग होने से वीतरागता आती है और वीतरागता आते ही मन सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में सम हो जाता है। सहाय-प्रत्याख्यान : स्वरूप और परिणाम--संयमी जीवन में किसी दूसरे का सहयोग न लेना सहाय-प्रत्याख्यान है। यह दो कारणों से होता है---(१) कोई साधक इतना पराक्रमी होता है कि दैनिक चर्या में स्वावलम्बी होता है, किसी का सहारा नहीं लेता, (2) दूसरा इतना दुर्बलात्मा होता है कि सामुदायिक जीवन में आने वाले उतार-चढ़ावों या एक दूसरे को आदेश-निर्देश के आदानप्रदान में उसकी मानसिक समाधि भग्न हो जाती है, बार-बार की रोक-टोक से उसमें विषमता पैदा होती है। इस कारण से साधक सहाय-प्रत्याख्यान करता है। जो संघ में रहते हुए अकेले जैसा निरपेक्ष-सहाय रहितजीवन जीता है, अथवा सामुदायिक जीवन से अलग रह कर एकाको संयमी जीवन यापन करता है, दोनों ही कलह, क्रोध, कषाय, हम-तुम आदि समाधिभंग के कारणों से बच जाते हैं, फिर उनके संयम और संवर में वृद्धि होती जाती है। मानसिक समाधि भंग नहीं होती, कर्मबन्ध रुक जाते हैं। भक्त-प्रत्याख्यान : स्वरूप और परिणाम-आहार-प्रत्याख्यान अल्पकालिक अनशनरूप होता है, जिसमें निर्दोष उग्रतपस्या की जाती है, किन्तु भक्तप्रत्याख्यान अनातुरतापूर्वक स्वेच्छा से दृढ अध्यवसायपूर्वक अनशनरूप होता है। शरीर का आधार आहार है, जब आहार की आसक्ति ही छूट जाती है, तब स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के शरीरों का ममत्व शिथिल हो जाता है। फलतः जन्म-मरण को परम्परा एकदम अल्प हो जाती है। यही भक्तप्रत्याख्यान का सबसे बड़ा लाभ है। सदभाव-प्रत्याख्यान : स्वरूप और परिणाम--सर्वान्तिम एवं परमार्थतः होने वाले प्रत्याख्यान को सद्भावप्रत्याख्यान कहते हैं। यह सर्वसंवररूप या शैलेशी-अवस्था रूप होता है / अर्थात्१४ वें अयोगोकेवलीगुणस्थान में होता है। यह पूर्ण प्रत्याख्यान हाता है। इससे पूर्व किये गए सभी प्रत्याख्यान अपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनके फिर प्रत्याख्यान करने को अपेक्षा शेष रहती है। जबकि 14 वें गुणस्थान की भूमिका में आगे फिर किसी भी प्रत्याख्यान की आवश्यकता या अपेक्षा नहीं रहती / इसीलिए इसे सद्भाव या 'पारमार्थिक प्रत्याख्यान' कहते हैं। इस भूमिका में शुक्लध्यान के 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 588 2. (क) कषः संसारः, तस्य प्राय: लाभः कषायः 3. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 4, पृ. 307 4. 'तथाविधढाध्यवसायतया संसाराल्पत्वापादनात् / ' (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 4, पृ. 301 (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर), पत्र 250 --बुहवृत्ति, पत्र 588 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org