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________________ [उत्तराध्ययनसूत्र [42 प्र.] भन्ते ! सद्भाव-प्रत्याख्यान से जीव को क्या उपलब्धि होती है ? [उ.] सद्भाव-प्रत्याख्यान से जीव को अनिवृत्ति (शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद) की प्राप्ति होती है / अनिवृत्ति से सम्पन्न अनगार केवलज्ञानी के शेष रहे हुए–वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र-इन भवोपनाही कर्मों का क्षय कर डालता है। तत्पश्चात् वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है तथा सब दुःखों का अन्त करता है। विवेचन--सम्भोग : लक्षण-समान सामाचारी वाले साधुओं का एक मण्डली में एकत्र भोजन (सहभोजन) करना तथा मुनिजनों द्वारा प्रदत्त आहारादि का ग्रहण करना संभोग है।' सम्भोग-प्रत्याख्यान का आशय-श्रमण निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों का लक्ष्य है-आत्मनिर्भरता / यद्यपि प्रारम्भिक दशा में एक दूसरे से आहार-पानी, वस्त्र-पात्र, उपकरण, रुग्णावस्था में सेवा, प्राहारपानी लाने का सहयोग, समवसरण, (धर्मसभा) में साथ बैठना, धर्मोपदेश साथ-साथ करना, परस्पर आदर-सत्कार-वन्दनादि के आदान-प्रदान में सहयोग लेना पड़ता है। किन्तु अधिक सम्पर्क में जहाँ गुण हैं, वहाँ दोष भी पा जाते हैं / परस्पर संघर्ष, कलह, ईर्ष्या, द्वेष, पक्षपात, वैरविरोध, छिद्र क्रोधादि कषाय कभी-कभी उग्ररूप धारण कर लेता है, तब असंयम बढ़ जाता है / अतः साधु को संभोग-त्याग का लक्ष्य रखना होता है, जिससे वह एकाग्रभाव में रह सके, रागद्वेषादि प्रपंचों से दूर शान्तिमय स्वस्थ संयमी जीवन यापन कर सके / ऐसा व्यक्ति स्वयंलब्ध वस्तु का उपभोग करता है, दूसरे के लाभ का न तो उपभोग करता है और न ही स्पृहा करता है, न ही मन में विषमता लाता है / ऐसा करने से दिव्य, मानुष कामभोगों से स्वत: विरक्त हो जाता है / कितना उच्च आदर्श है साधुसंस्था का ! संभोगप्रत्याख्यान को आदर्श गीतार्थ होने से जिनकल्पादि अवस्था स्वीकार करने वाले साधु का है। उपधि तथा उसके त्याग का प्राशय-उपधि कहते हैं—वस्त्र आदि उपकरणों को, जो कि स्थविरकल्पी साधु के विकासक्रम की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है / साधु को उपधि रखने में दो बाधानों की संभावना व्यक्त की गई है-पलिमन्थ और क्लेश / उपधि रखने से स्वाध्याय-ध्यान आदि आवश्यक क्रियाओं में बाधा पहुँचती है, उपधि फूट-टूट जाने, चोरी हो जाने से मन में संक्लेश होता है / दूसरे के पास सुन्दर मनोज्ञ वस्तु देख कर ईर्ष्या, द्वेष आदि विकार उत्पन्न होते हैं। उपधिप्रत्याख्यान से इन दोनों दोषों तथा परिग्रह-सम्बन्धी दोषों की सम्भावना नहीं रहती / उसके प्रतिलेखन-प्रमार्जन में लगने वाला समय स्वाध्याय-ध्यान में लगाया जा सकता है। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। ___ आहारत्याग का परिणाम आहार-प्रत्याख्यान यहाँ व्यापक अर्थ में है / आहार-प्रत्याख्यान के दो पहलू हैं-थोड़े समय के लिए और जीवनभर के लिए। अथवा दोषयुक्त अनेषणीय, 1. 'एकमण्डल्यां स्थित्वा आहारस्य करणं सम्भोगः / ' -बृहद्वति, अ. रा. कोष पृ. 216 2. (क) 'दुवालसविहे संभोगे पण्णत्ते, तं जहा......कहाए य पबंधणे।' .-समवायांग 12 समवाय (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) पत्र 248 (ग) स्थानांग स्था. 4 / / 325 (घ) बृहद्वृत्ति, पत्र 588 3. बहत्ति, पत्र 588 : परिमन्थः स्वाध्यादिक्षतिस्तदभावोऽपरिमन्थः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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