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________________ ध्यानमुद्रा में थे। उन्हें देखकर राजा संजय भयभीत हया / वह सोचने लगा ... मैंने मुनि की पाशातना की है। मुनि से क्षमायाचना की। मुनि ने जीवन की अस्थिरता. पारिवारिक जनों की प्रसारता और कर्म-परिणामा की निश्चितता का प्रतिपादन किया। जिसमें राजा के मन में वैराग्य उत्पन्न हुया और वह मुनि बन गया। एक बार एक क्षत्रिय मुनि ने संजय मुनि से पूछा---ग्राप कौन हैं, आपका नाम और गोत्र क्या है, किस प्रकार प्राचार्यों की सेवा करते हो? कृपा करके वताइये / मुनि संजय ने संक्षेप में उत्तर दिया। उत्तर सुनकर मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने मनि संजय को जैन प्रवचन में सुदद करने के लिए अनेक महापुरुषों के उदाहरण दिये। इस अध्ययन में अनेक चक्रवतियों का उल्लेख हया है। भरत चक्रवर्ती भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। इन्हीं के नाम पर प्रस्नुन देश का नाम 'भारतवर्ष हुग्रा / इन्होंने षटखण्ड के साम्राज्य का परित्याग कर श्रमणधर्म स्वीकार किया था। दूसरे चक्रवर्ती मगर थे। अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशीय राजा जितपत्र का राज्य था। उसके भाई का नाम मुमित्रविजय था। विजया और यशोमती ये दो पत्नियां थीं। विजया के पुत्र का नाम अजित था, जो द्वितीय तीर्थंकर के नाम से विध त हए और यशोमती के पुत्र का नाम मगर था, जो द्वितीय चक्रवर्ती हगा। तृतीय चक्रवर्ती का नाम मघव था। ये श्रावस्ती नगरी के राजा समुद्रविजय को महारानी भद्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। सनत्कुमार चतुर्थ चक्रवर्ती थे। ये कुरु जांगल जनपद में हस्तिनापुर नगर के निवासी थे / उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम मह देवी था। शान्तिनाथ हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन के पुत्र थे / इनकी माता का नाम अचिरा देवी था। ये पाँचवें चक्रवती हुए। राज्य का परित्याग कर श्रमण बने और सोलहवे तीर्थकर हुए। कुन्थु हस्तिनापुर के राजा मूर के पुत्र थे। इनकी माता का नाम श्री देवी था। ये छठे चक्रवर्ती हुए / अन्त में राज्य का परित्याग कर श्रमण बने / तीर्थ की स्थापना कर सत्तरहवें तीर्थकर हुए। 'अर' गजपुर के राजा सुदर्शन के पुत्र थे। इनकी माता का नाम देवी था। ये सातवें चक्रवर्ती हए। राज्य-भार को छोड़कर धमणधर्म में दीक्षित हुए। तीर्थ की स्थापना करके अठारहवं तीर्थकर हुए। नवें चक्रवर्ती महापद्म थे। ये हस्तिनापुर के पद्मोत्तर राजा के पुत्र थे। उनकी माता का नाम झाला था। उनके दो पुत्र हए---विष्णुकुमार और महापद्म / महापद्म नौवें चक्रवर्ती हुए। हरिसेण दसवें चक्रवर्ती हए। ये काम्पिल्यपुर नगर के निवासी थे। इनके पिता का नाम महाहरिश था और माता का नाम 'मेरा' था / जय राजगृह नगर के राजा समुद्रविजय के पुत्र थे / इनकी मां का नाम वप्रका था। ये ग्यारहवें चक्रवर्ती के रूप में विश्रत हुए। भरत से लेकर जय तक तीर्थकरों और चक्रवतियों का अस्तित्व काल प्राग-ऐतिहासिक काल है। इन सभी ने संयम-मार्ग को ग्रहण किया। दशार्णभद्र दशार्ण जनपद के राजा थे। ये भगवान महावीर के समकालीन थे। नमि विदेह के राजा थे। चड़ो की नीरवता के निमित्त से प्रतिबुद्ध हुए थे / कुम्भ जातक में मिथिला के निमि राजा का उल्लेख है। वह गवाक्ष में बैठा हुअा राजपथ की शोभा निहार रहा था। एक चील मांस का टुकड़ा लिए हुए आकाश में जा रही थी। इधर-उधर से गिद्धों ने उसे घेर लिया। एक गिद्ध ने उस मांस के टुकड़े को पकड़ लिया। दूसरा छोड़ कर चल दिया। राजा ने देखा जिस पक्षो ने मांस का टुकड़ा लिया, उसे दु:ख सहन करना पड़ा है और जिसने मास का टुकड़ा छोड़ा उसे सुख मिला / जो कामभोगों को ग्रहण करता है, उसे दुःख मिलता है / मेरी मोलह हजार पत्नियाँ हैं। मुभे, उनका परित्याग कर सुखपूर्वक रहना चाहिए / निमि ने भावना की वृद्धि से प्रत्येकबोधि को प्राप्त किया / 74 करकण्डु कलिंग के राजा थे / वे बड़े बैल को देखकर प्रतिबुद्ध हुए। वे सोचने लगे-- एक दिन यह बैल बछड़ा था, युवा हुअा। इसमें अपार शक्ति थी। आज इसकी आँखें गड़ो जा रहा है, पर 174. कुम्भवारजातक (संख्या 40%) जातक खण्ड 4, पृष्ठ 39 [ 61 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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