________________ प्राचार्य वद्रकेर ने मुलाचार में 17. और पं. पाशाधर जी ने'७" अनगारधर्मामत में शील पागधना में विघ्न समुत्पन्न करने वाले दश कारण बताये हैं। उन सभी कारणों में प्राय: उत्तराध्ययन में निर्दिष्ट कारण ही हैं। कुछ कारण पृथक भी हैं। इन सभी कारणों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि जैन आगममाहित्य तथा उसके पश्चात्वर्ती साहित्य में जिस क्रम से निरूपण हुआ है, वैसा शृखलाबद्ध निरूपण वेद और उपनिषदों में नहीं हना है / दक्षस्मृति में 172 कहा गया है--मैथुन के स्मरण कीर्तन, क्रीड़ा, देखना, गुह्य भाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रिया ये आठ प्रकार बताये गये हैं.—इनसे अलग रहकर ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए। त्रिपिटक साहित्य में ब्रह्मचर्य-गुप्तियों का जैन साहित्य की तरह व्यवस्थित क्रम प्राप्त नहीं है किन्तु कुछ छुटपुट नियम प्राप्त होते हैं। उन नियमों में मुख्य भावना है-अशचि भावना ! अणचि भावना में शरीर की प्राक्ति दूर की जाती है / इसे ही कायगता स्मृति कहा है / '73 श्रेष्ठश्रमण और पापश्रमण में अन्तर सत्तरहवें अध्ययन में पाप-श्रमण के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है। जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच प्राचारों का सम्यक् प्रकार से पालन करता है, वह श्रेष्ठ श्रमण है। श्रामण्य का आधार आचार है। प्राचार में मुख्य अहिंसा है। अहिंसा का अर्थ है--सभी जीवों के प्रति संयम करना / जो श्रमणाचार का सम्यक प्रकार से पालन नहीं करता और जो अकर्तव्य कार्यों का प्राचरण करता है, वह पाप-श्रमण है। जो विवेकभ्रष्ट श्रमण है, वह सारा समय खाने-पीने और सोने में व्यतीत कर देता है। न समय पर प्रतिलेखन करना है और न समय पर स्वाध्याय-ध्यान आदि ही। समय पर सेवा-शुश्रषा भी नहीं करता है। वह पाप-श्रमण है। श्रमण का अर्थ केवल वेष-परिवर्तन करना नहीं, जीवन परिवर्तन करना है। जिसका जीवन परिवर्तित—प्रात्मनिष्ठ-अध्यात्मनिरत हो जाता है, भगवान महावीर ने उसे श्रेष्ठ श्रमण की अभिधा से अभिहित किया है। प्रस्तुत अध्ययन में पापथपण के जीवन का शब्दचित्र संक्षेप में प्रतिपादित है। गागर में सागर अठारहवें अध्ययन में राजा संजय का वर्णन है। एक बार राजा संजय शिकार के लिए केशर उद्यान में गया / वहाँ उसने संत्रस्त मृगों को मारा। इधर उधर निहारते हुए उसकी दृष्टि मुनि गर्दभाल पर गिरी / व 130. मूलाचार 11313, 14 171. अनगारधर्मामृत 4161 132. ब्रह्मचर्य मदा रक्षेदष्टधा मैथुनं पृथक् / स्मरण कीर्तनं केलि. प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् // संकल्पोऽध्यबसायश्च क्रिया निष्पत्तिरेव च / एतन्मथ नमष्टाङ्ग प्रवदन्ति मनीषिणः / / न ध्यातव्यं न वक्तव्यं न कर्तव्य कदाचन / एतैः सर्वे: सुसम्पन्नो यतिर्भवति नेतरः / / __-दक्षस्मृति // 31-33 173. (क) सुत्तनिपात 1111 (ख) विशुद्धिमग्ग (प्रथम भाग) परिच्छेद 8, १ष्ठ 218-260 (ग) दीघनिकाय (महापरिनिबाणसुत्त) 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org