________________ 504] [उत्तराध्ययनसूत्र 34 से 41 प्रत्याख्यान की नवसूत्री ३४--संभोग-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? संभोग-पच्चक्खाणेणं पालम्बणाई खवेइ / निरालम्बणस्स य आयय ट्ठिया जोगा भवन्ति / सएणं लाभेणं संतुस्सइ, परलाभं नो आसाएइ, नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ / परलाभं अणासायमाणे, प्रतक्केमाणे, अपीहेमाणे, अपत्थेमाणे, अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्जं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। [34 प्र.] भन्ते ! सम्भोग-प्रत्याख्यान से जोव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] सम्भोग के प्रत्याख्यान से पालम्बनों का क्षय (ग्रालम्बन-मुक्त) हो जाता है। निरवलम्ब साधक के मन-वचन-काय के योग (सब प्रयत्न) प्रायतार्थ (मोक्षार्थ) हो जाते हैं / तब वह स्वयं के द्वारा उपाजित लाभ से सन्तुष्ट होता है, दूसरों के लाभ का आस्वादन (उपभोग) नहीं करता / (वह परलाभ को) कल्पना भी नहीं करता, न उसकी स्पृहा करता है, न प्रार्थना (याचना) करता है और न अभिलाषा ही करता है। दूसरों के लाभ का पास्वादन, कल्पना, स्पृहा, प्रार्थना और अभिलाषा न करता हुआ साधक द्वितीय सुखशय्या को प्राप्त करके विचरता है। ३५-उवहि-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? उवहि-पच्चक्खाणेणं अपलिमन्थं जणयइ / निरुवहिए णं जीवे निक्कंखे, उवहिमन्तरेण य न संकिलिस्सइ। {35 प्र.] भंते ! उपधि के प्रत्याख्यान से जीव को क्या उपलब्धि होती है ? [उ.] उपधि (उपकरण) के प्रत्याख्यान से जीव परिमन्थ (स्वाध्याय-ध्यान की हानि) से बच जाता है / उपधिरहित साधक आकांक्षा से मुक्त होकर उपधि के अभाव में क्लेश नहीं पाता / ३६--आहार-पच्चक्खाणेणं भन्त ! जीवे कि जणयइ? आहार-पच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दइ / जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दित्ता जीवे आहारमन्तरेणं न संकिलिस्सइ / [36 प्र.] भन्ते ! आहार के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] अाहार के प्रत्याख्यान से जीव जीवन (जीने) की आशंसा (कामना) के प्रयत्न को विच्छिन्न कर देता है। जीवित रहने की प्राशंसा के प्रयत्न को छोड़ देने पर ग्राहार के अभाव में भी वह क्लेश का अनुभव नहीं करता। ३७--कसाय-पच्चक्खाणणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? कसाय-पच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ / वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भव॥ [37 प्र.] भन्ते ! कषाय के प्रत्याख्यान से जीव को क्या उपलब्धि होती है ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org