________________ उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] , [503 31. विविक्तशयनासन से लाभ ३२--विवित्तसयणासणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? विवित्तसयणासणयाए णं चरित्तत्ति जणयइ / चरित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे, वढचरित्ते, एगन्तरए, मोक्खभावपडिवन्ने अविहकम्मठि निज्जरेइ / / _ [32 प्र.] भन्ते ! विविक्त शयन और पासन से जीव को क्या लाभ होता है ? [उ.] विविक्त (जनसम्पक से रहित अथवा स्त्री-पशु-नपुंसक से असंसक्त एकान्त स्थान में निवास से साधक चारित्र को रक्षा (गुप्ति) करता है। चारित्ररक्षा करने वाला जीव विविक्ताहारी (शुद्ध-सात्विक पवित्र-ग्राहारी), दृढचारित्री, एकान्तप्रिय, मोक्षभाव से सम्पन्न एवं आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थि की निर्जरा (एकदेश से क्षय) करता है। विवेचन--विविक्त निवास एवं शयनासन का महत्त्व--द्रव्य से जनसम्पर्क से दूर कोलाहल से एवं स्त्री-पशु-नपुंसक के संसर्ग से रहित हो एकान्त, शान्त, साधना योग्य निवास स्थान हो, भाव से मन में भी राग-द्वेष-कषायादि से तथा वैषयिक पदार्थों की आसक्ति से शून्य एकमात्र आत्मकन्दरा में लीन हो / शास्त्रों में ऐसे एकान्त स्थान बताए हैं---श्मशान, शून्यगृह, वृक्षमूल आदि / 32. विनिवर्तना से लाभ ___३३---विणियट्टणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? विणियट्टणयाए णं पावकम्माणं प्रकरणयाए अन्भुट्ठइ / पुवबद्धाण य निज्जरणयाए तं नियत्तेइ, तो पच्छा चाउरन्तं संसारकन्तारं वीइवयइ / [33 प्र. विनिवर्तना से जीव को क्या लाभ होता है ? उ.] विनिवर्तना से जीव (नये) पाप कर्मों को न करने के लिए उद्यत रहता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा से वह पापकर्मों का निवर्तन (क्षय) करता है। तत्पश्चात् चार गतिरूप संसाररूपी महारण्य (कान्तार) को पार कर जाता है। विवेचन--विनिवर्तना : विशेषार्थ प्रात्मा (मन और इन्द्रियों) का विषयों से पराङ मुख होना / जब मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से- अर्थात् पाश्रवों से-बन्ध हेतुनों से साधक विनिवृत्त हो जाता है तो स्वतः हो ज्ञानावरणीयादि पापकर्मों को नहीं बाँधने के लिए उद्यत हो जाता है तथा दूसरे शब्दों में-वह धर्म के प्रति उत्साहित हो जाता है / तथा पापकर्म के हेतु नहीं रहते, तब पूर्वबद्ध कर्म स्वयं क्षीण होने लगते हैं / अतः नये पापकर्म को वह विनष्ट या निवारण कर देता है / बन्ध और पाश्रव दोनों अन्योन्याश्रित होते हैं। पाश्रव के रुकते ही बन्ध टूट जाते हैं। इसलिए पूर्ण संवर और पूर्ण निर्जरा दोनों के सहवर्ती होने से संसार-महारण्य को पार करने में क्या सन्देह रह जाता है ? यही विनिवर्तना का सुदूरगामी परिणाम है / ' 1. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. 2 (ख) 'सुसाणे सुन्नागारेय रुक्खमूले व एयओ।" -उत्तरा. 35/6 2. उत्तरा. बहवृत्ति पत्र 587 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org