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________________ 502] [उत्तराध्ययनसूत्र सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त हो जाता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त करता है। विवेचन---मोक्ष को त्रिसूत्री : संयम, तप और व्यवदान--संयम से नये कर्मों का प्रागमन (आश्रव) रुक जाता है, तप से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय हो जाता है तथा (व्यवदान) आत्मविशुद्धि हो जाती है और व्यवदान से जीव के मन, वचन और काया की क्रियाएँ रुक जाती हैं, प्रात्मा अक्रिय हो जाती है और सिद्ध बुद्ध मुक्त परिनिर्वृत्त होकर सर्व दुःखों का अन्त, कर लेता है। अतः ये तीनों क्रमशः मोक्षमार्ग के प्रमुख सोपान हैं / 26. सुखशात का परिणाम ३०---सुहसाएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं जणयइ / अणुस्सुयाए णं जीवे अणुकम्पए, अणुबभडे, विगयसोगे, चरित्तमोहणिज्जं कम्म खवेइ // [30 प्र.] भगवन् ! सुखशात से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] सुखशात से विषयों के प्रति अनुत्सुकता पैदा होती है / अनुत्सुकता से जीव अनुकम्पा करने वाला, अनुद्भट (अनुद्धत), एवं शोक रहित होकर चारित्रमोहनीयकर्म का क्षय करता है। विवेचन-सुखशात एवं उसका पंचविध परिणाम-सुखशात का अर्थ है—शब्दादि वैषयिक सुखों के प्रति शात अर्थात् अनासक्ति-अगृद्धि / (1) विषयों के प्रति अनुत्सुकता, (2) अनुकम्पापरायणता, (3) उपशान्तता, (4) शोकरहितता एवं अन्त में (5) चारित्रमोहनीयक्षय, यह क्रम है।' 30. अप्रतिबद्धता से लाभ ३१-अप्पडिबद्धयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगतं जणयइ / निस्संगत्तेणं जीवे एगे, एगग्गचित्ते, दिया य राओ य असज्जमाणे, अप्पडिबद्ध यावि विहरइ॥ [31 प्र.] भगवन् ! अप्रतिबद्धता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] अप्रतिबद्धता से जीव निस्संगता को प्राप्त होता है / निःसंगता से जीव एकाकी (आत्मनिष्ठ) होता है, एकाग्रचित्त होता है, दिन और रात वह सदैव सर्वत्र अनासक्त (विरक्त) और अप्रतिबद्ध होकर विचरण करता है / विवेचन-प्रतिबद्धता–अप्रतिबद्धता–प्रतिबद्धता का अर्थ है--किसी द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव के पीछे पासक्तिपूर्वक बँध जाना। अप्रतिबद्धता का अर्थ इससे विपरीत है। अप्रतिबद्धता का क्रमश: प्राप्त होने वाला परिणाम इस प्रकार है--(१) नि:संगता, (2) एकाकिता-अात्मनिष्ठा, (3) एकाग्नचित्तता, (4) सदैव सर्वत्र अनासक्ति–विरक्ति एवं (5) अप्रतिबद्ध विचरण / - . -...... .---. -.-... 1. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 4. पृ. 203-284 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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